महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 47 श्लोक 17-31
सप्तचत्वारिंश (47) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
ब्राहामण से शूद्रा के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे ब्राहामण नहीं मानते हैं; क्योंकि उसमें ब्राहामणों- चित निपुणता नहीं पायी जाती। शेष तीन वर्ण की स्त्रियों से ब्राहामण द्वारा जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह ब्राहामण होता है। चार ही वर्ण बताये हैं, पॉंचवाँ वर्ण नहीं मिलता। शुद्रा का पुत्र ब्राहामण पिता के धन से उसका दसवाँ भाग ले सकता है। वह भी पिता के देने पर ही उसे लेना चाहिये, बिना दिये उसे लेने का कोई अधिकार नहीं है। भरतनन्दन! किंतु शूद्रा के पुत्र को भी धन का भाग अवश्य दे देना चाहिये। दया सबसे बड़ा धर्म है। यह समझकर उसे धन का भाग दिया जाता है। दया जहाँ भी उत्पन्न हो, वह गुणकारक ही होती है। भारत! ब्राहामण के अन्य वर्ण की स्त्रियों से पुत्र हो या न हो, वह शूद्रा के पुत्र को दसवें भाग से अधिक धन न दें। जब ब्राहामण के पास तीन वर्ष तक निर्वाह होने से अधिक धन एकत्र हो जाये तब वह धन से यज्ञ करे। धन का व्यर्थ संग्रह न करे। स्त्री को पति के धन से जो हिस्सा मिलता है, उसका उपभोग ही (उसके लिये) फल माना गया है। पति के द्वारा दिये हुए स्त्री धन से पुत्र आदि को कुछ नहीं लेना चाहिये। युधिष्ठिर! ब्राहामणी को पिता की ओर से जो धन मिला हो, उस धन को उसकी पुत्री ले सकती है; क्योंकि जैसा पुत्र है, वैसी ही पुत्री भी है। कुरुनन्दन! भरतकुलभूषण नरेश! पुत्री पुत्र के समान ही है-ऐसा शास्त्र का विधान है। इस प्रकार वही धन के विभाजन की धर्मयुक्त प्रणाली बतायी गयी है। इस तरह धर्म का चिन्तन एवं अनुस्मरण करते हुए ही धन का उपार्जन एवं संग्रह करें। परंतु उसे व्यर्थ न होने दें-यज्ञ-यागादि के द्वारा सफल कर लें। युधिष्ठिर ने पूछा-दादाजी! यदि ब्राहामण से शूद्रा में उत्पन्न हुए पुत्र को धन न देने योग्य बताया गया है तो किस विशेषता के कारण उसको पैतृक धन का दसवाँ भाग भी दिया जाता है? ब्राहामण से ब्राहामणी में उत्पन्न हुआ पुत्र ब्राहामण हो-इसमें कोई संशय ही नहीं, वैसे ही क्षत्रिया और वैश्या के गर्भ से उत्पन्न हुए पुत्र भी ब्राहामण ही होते हैं। नृपश्रेष्ठ! जब आपने ब्राहामण आदि तीनों वर्णों वाली स्त्रियों से उत्पन्न हुए पुत्रों को ब्राहामण ही बताया है, तब वे पैतृक धन का समान भाग क्यों नही पाते हैं? क्यों वे विषम भाग ग्रहण करें? भीष्म जी ने कहा-शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! लोक में सब स्त्रियों का ‘दारा’ इस एक नाम से ही परिचय दिया जाता है। इस तथाकथित नाम से ही चारों वर्णों की स्त्रियों से उत्पन्न हुए पुत्रों में महान अन्तर हो जाता है[१] ब्राहामण पहले अन्य तीनों वर्णों की स्त्रियों को ब्याह लाने के पश्चात भी यदि ब्राहामण कन्या से विवाह करे तो वही अन्य स्त्रियों की अपेक्षा ज्येष्ठ, अधिक आदर-सत्कार के योग्य तथा विशेष गौरव की अधिकारिणी होगी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ *’दार’ शब्द की व्युत्पति इस प्रकार है-‘आद्रियन्ते त्रिवर्गार्थिभि: इति दारा’।धर्म, अर्थ और काम की इच्छा रखने वाले पुरुषों द्वारा आदर किया जाता है, वे दारा हैं, वे दारा हैं। जहाँ तक भोग विषयक आदर है,वह तो सभी स्त्रियों के साथ समान है, परंतु व्यवहारिक जगत में जो पति के द्वारा आदर प्राप्त होता है,वह वर्णक्रम से यथायोग्य न्यूनाधिक मात्रा में ही उपलब्ध होता है। यही बात उनके पुत्रों के सम्बन्ध में भी लागू होती है।इसीलिये उनके पुत्रों को पैतृक धन के विषय में कम और अधिक भाग ग्रहण करनेका अधिकार है।