महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 4 श्लोक 21-41

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चतुर्थ (4) अध्याय :अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद

भरतनन्‍दन ! अपनी पत्‍नी के सद्व्‍यवहार से ब्रह्मार्षि बहुत संतुष्‍ट हुए । उन्‍होनें उस परम सुन्‍दरी पत्‍नी को मनोवांछित वर देने की इच्‍छा प्रकट की। नृपश्रेष्‍ठ ! तब उस राजकन्‍या ने अपनी माता से मुनि की कही हुई सब बातें बतायीं । वह सुनकर उसकी माता ने संकोच सिर नीचे करके पुत्री से कहा-बेटी ! तुम्‍हारे पति को पुत्र प्रदान करने के लिये मुझ पर भी कृपा करनी चाहिए, क्‍योंकि वे महान् तपस्‍वी और समर्थ हैं। राजन् ! तदनन्‍तर सत्‍यवती ने तुरंत जाकर माता की वह सारी इच्‍छा ऋचीक से निवेदन की । तब ऋचीक ने उससे कहा- कल्‍याणि ! मेरे प्रसाद से तुम्‍हारी माता शीघ्र ही गुणवान पुत्र को जन्‍म देगी । तुम्‍हारा प्रेमपूर्ण अनुरोध असफल नहीं होगा। तुम्‍हारे गर्भ से भी एक अत्‍यन्‍त गुणवान और महान तेजस्‍वी पुत्र उत्‍पन्‍न होगा, जो हमारी वंशपरम्‍परा को चलायेगा । मैं तुमसे यह सच्‍ची बात कहता हूं। कल्‍याणि ! तुम्‍हारी माता ऋतुस्‍नान के पश्‍चात पीपल के वृक्ष का आलिंगन करे और तुम गूलर के वृक्ष का । इससे तुम दोनों को अभीष्‍ट पुत्र की प्राप्ति होगी।पवित्र मुस्‍कानवाली देवि ! मैंने येदो मंत्रपूत चरू तैयार किये हैं इनमें से एक को तुम खा लो और दूसरे को तुम्‍हारी माता । इससे तुम दोनों को पुत्र प्राप्‍त होंगे। तब सत्‍यवती ने हर्षमग्‍न होकर ऋचीक ने जो कुछ कहा था, वह सब अपनी माता को बताया और दोनों के लिये तैयार किये हुए पृथक-पृथक चरूओं की भी चर्चा की। उस समय माताने अपनी पुत्री सत्‍यवती से कहा- बेटी ! माता होने के कारण पहले से मेरा तुम पर अधिकार है, अत: तुम मेरी बात मानो। तुम्‍हारें पति ने जो मंत्रपूत चरू तुम्‍हारे लिये दिया है, वह तुम मुझे दे दो और मेरा चरू तुम ले लो । पवित्र हास्‍यवाली मेरी अच्‍छी बेटी ! यदि तुम मेरी बात मानने योग्‍य समझों तो हमलोग वृक्षों में भी अदल-बदल कर लें। प्राय: सभी लोग अपने लिये निर्मल एवं सर्वगुणसम्‍पन्‍न श्रेष्‍ठ पुत्र की इच्‍छा करते हैं । अवश्‍य ही भगवान ऋचीक ने भी चरू निर्माण करते समय ऐसा तारतम्‍य रखा होगा। सुमध्‍य में ! इसीलिये तुम्‍हारे लिये नियत किये गये चरू और वृक्ष में मेरा अनुराग हुआ है । तुम भी यही चिन्‍तन करो कि मेरा भाई किसी तरह श्रेष्‍ठ गुणों से सम्‍पन्‍न हो। युधिष्ठिर ! इस तरह सलाह करके सत्‍यवती और उसकी माताने उसी तरहउन दोनों वस्‍तुओं का अदल-बदलकर उपयोग किया । फिर तोवे दोनों गर्भवती हो गयीं। अपनी पत्‍नी सत्‍यवती को गर्भवती अवस्‍था में देखकर भृगुश्रेष्‍ठ महर्षि ऋचीक का मन खिन्‍न हो गया। उन्‍होनें कहा- शुभे ! जान पड़ता है तुमने बदलकर चरूका उपयोग किया है । इसी तरह तुम लोगों ने वृक्षों के आलिंगन में भी उलट-फेर कर दिया है - ऐसा स्‍पष्‍ट प्रतीत हो रहा है। मैंने तुम्‍हारे चरू में सम्‍पूर्ण ब्रह्मातेज का संनिवेश किया था और तुम्‍हारी माता के चरू में समस्‍त क्षत्रियोचित शक्ति की स्‍थापना की थी। मैनें सोचा था कि तुम त्रिभुवन में विख्‍यात गुणवाले ब्रह्माण को जन्‍म दोगी और तुम्‍हारी माता सर्वश्रेष्‍ठ क्षत्रिय की जननी होगी । इसलिये मैंने दो तरह के चरूओं का निर्माण किया था। शुभे ! तुमने और तुम्‍हारी माता ने अदला-बदली कर ली है, इसलिये तुम्‍हारी माता श्रेष्‍ठ ब्राह्माण पुत्र को जन्‍म देगी और भद्रे ! तुम भयंकर कर्म करने वाले क्षत्रिय की जननी होओगी । भाविनि ! माता के स्‍हने में पड़कर तुमन यह अच्‍छा काम नहीं किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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