महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 51 श्लोक 39-48
एकपञ्चाशत्तम (51) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
मल्लाहो ! मैं तुम्हारी दी हुई गौ स्वीकार करता हॅू। इस गोदानके प्रभावसे तुम्हारे सारे पाप दूर हो गये।अब तुमलोग जलमें पैदा हुई इन मछलियोंके साथ ही साथ शीघ्र स्वर्ग को जाओ। भीष्मजी कहते हैं- भारत ! विशुध्द अन्त:करणवाले उन महर्षि च्यवनके पूर्वोक्त बात कहते ही उनके प्रभावसे वे मल्लाह उन मछलियोंके साथ ही स्वर्गलोकको चले गये। भरतश्रेष्ठ ! उस समय मल्लाहों और मत्स्योंको भी स्वर्गलोककी ओर जाते देख राजा नहुषको बड़ा आश्चर्य हुआ। तत्पश्चात् गौसे उत्पन्न महर्षि और भृगुनन्दन च्यवन दोनोंने राजा नहुषसे इच्छानुसार वर मॉंगनेके लिये कहा। भरतभूषण, तब वे महापराक्रमी भूपाल राजा नहुष प्रसन्न होकर बोले- ‘बस, आपलोगोंकी कृपा ही बहुत है‘। फिर दोनोंके आग्रहसे उन इन्द्रके समान तेजस्वी नरेश ने धर्ममें स्थित रहनेका वरदान मॉंगा और उनके तथास्तु कहनेपर राजाने उन दोनों ॠषिर्योंका विधिवत् पूजन किया। उसी दिन महर्षि च्यवनकी दीक्षा समाप्त हुई और वे अपने आश्रमपर चले गये। इसके बाद महातेजस्वी गोजात मुनि भी अपने आश्रमको पधारे। नरेश्वर ! वे मल्लाह और मत्स्य तो स्वर्गलोकमें चले गये और राजा नहुष भी वर पाकर अपनी राजधानी लौट आये। तात युधिष्ठिर ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने यह सारा प्रसंग सुनाया है। दर्शन और सहवाससे कैसा स्नेह होता है? गौओंका माहात्म्य क्या है ? तथा इस विषयमें धर्मका निश्चय क्या है? ये सारी बातें इस प्रसंगसे स्पष्ट हो जाता है। अब मैं तुम्हें कौन-सी बात बताउ? वीर ! तुम्हारे मनमें क्या सुननेकी इच्छा है?
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