महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 59 श्लोक 33-41
एकोनषष्टितम (59) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
ब्राह्माण स्वभावतः कोमल, सत्यवादी और सत्यधर्म का पालन करने वाले होते हैं, परंतु जब वे कुपित होते हैं तब विषैले सर्प के समान भयंकर हो जाते हैं। अतः तुम सदा ब्राह्माणों को सेवा करते रहो । छोटे-बड़े और बड़ों से भी बड़े जो क्षत्रिय तेज और बल से तप रहे हैं, उन सब के तेज और तप ब्राह्माणों के पास जाते ही शांत हो जाते हैं।तात्। मुझे ब्राह्माण जितने प्रिय हैं, उतने मेरे पिता, तुम, पितामह, यह शरीर और जीवन भी प्रिय नहीं है।। भरतश्रेष्ठ। इस पृथ्वी पर तुमसे अधिक प्रिय मेरे लिये दूसरा कोई नहीं है; परंतु ब्राह्माण तुमसे भी बढकर प्रिय हैं। पाण्डुनन्दन। मैं यह सच्ची बात कह रहा हूं और चाहता हूं कि इस सत्य के प्रभाव से मैं उन्हीं लोकों में जाऊं जहां मेरे पिता शान्तनु गये हैं। इस सत्य के प्रभास से ही मैं सत्पुरूषों के उन पवित्र लोकों का दर्शन कर रहा हूं जहां ब्राह्माणों और ब्रह्माजी की प्रधानता है। तात्। मुझे शीघ्र ही चिरकाल के लिये उन लोकों में जाना है। भरतश्रेष्ठ। पृथ्वीनाथ।ब्राह्माणों के लिये मैंने जो कुछ किया है, उसके फलस्वरूप ऐसे पुण्य लोकों का दर्शन करके मुझे संतोष हो गया है। अब मैं इस बात के लिये संतप्त नहीं हूं कि दूसरा कोई पुण्य क्यों नहीं किया ।
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