महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-17

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पञ्चचम (5) अध्याय :अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

स्‍वामीभक्‍त एवं दयालु पुरूष की श्रेष्‍ठता बताने के लिये इन्‍द्र और तोते के संवाद का उल्‍लेख

युधिष्ठिर ने कहा-धर्मज्ञ पितामह !अब मैं दयालु और भक्‍त पुरूषों के गुण सुनना चाहता हूं, अत: कृपा करकेमुझे उनके गुण ही बताइये। युधिष्ठिर ! इस विषय में भी महामनस्‍वी तोते और इन्‍द्र का संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। काशिराज के राज्‍य बात है, एक व्‍याध विष में बुझाया हुआ बाण लेकर गांव से निकला और शिकार के लिये किसी मृग को खोजने लगा। उस महान् वन में थोड़ी ही दूर जानेपर मांसलोभी व्‍याध ने कुछ मृगों को देखा और उनपर बाण चला दिया। व्‍याध का वह बाण अमोघ था, परंतु निशाना चूक जाने के कारण मृग को मारने की इच्‍छा से छोड़े गये उसबाण ने एक विशाल वृक्ष को वेध दिया। तीखे विष से पुष्‍ट हुएउस बाण से बड़े जोर का आघात लगने के कारण उस वृक्ष में जहर फैल गया । उसके फल और पत्‍ते झड़ गये और धीरे-धीरे वह सूखने लगा। उस वृक्ष के खोंखले में बहुत दिनों से एक तोता निवास करता था । उसका उस वृक्ष के प्रति बड़ा प्रेम हो गया था, इसलिए वह उसके सूखने पर भी वहां का निवास छोड़ नहीं रहा था। वह धर्मात्‍मा एवं कृतज्ञ तोता कहीं आता-जाता नहीं था । चारा चुगना भी छोड़ चुका था वह इतना शिथिल हो गया था कि उससे बोला तक नहीं जाता था। इस प्रकार उस वृक्ष के साथ वह स्‍वयं भी सूखता चला जा रहा था। उसका धैर्य महान् था । उसकी चेष्‍टा अलौकिक दिखायी देती थी । दु:ख और सुख में समान भाव रखने वाले उस उदार तोते को देखकर पाक शासन इन्‍द्र को बड़ा विस्‍मय हुआ। इन्‍द्र यह सोचने लगे कि यह पक्षी कैसे ऐसी अलौकिक दया को अपनाये बैठा है, जो पक्षी की योनि में प्राय: असम्‍भव है। अथवा इसमें कोई आश्‍चर्य की बात नहीं है, क्‍योंकि सब जग‍ह सब प्राणियों में सब तरह की बातें देखने में आती हैं - ऐसी भावना मन में लाने पर इन्‍द्र का मन शांत हुआ। तदनन्‍तर वे ब्राह्माण के वेश में मनुष्‍य का रूप धारण करके पृथ्‍वी पर उतरेओर उस शुक पक्षी से बोले- पक्षियों में श्रेष्‍ठ शुक ! तुम्‍हे पाकर दक्ष्‍ा की दौहित्री शुकी उत्‍तम संतानवाली हुई है । मैं तुमसे पूछता हूं कि अब इस वृक्ष को क्‍यों नहीं छोड़ देते हो ? उनके इस प्रकार पूछने पर शुकने मस्‍तक नवाकर उन्‍हें प्रणाम किा और कहा- देवराज ! आपका स्‍वागत है । मैनें तपस्‍या के बल से आपको पहचान लिया है'। यह सुनकर सहस्‍त्रनेत्रधारी इन्‍द्र ने मन-ही-मन कहा - वाह ! वाह ! क्‍या अद्भूत विज्ञान है ! ऐसा कहकर उन्‍होनें मन से ही उसका आदर किया। वृक्ष के प्रति इस तोते का कितना प्रेम है इस बात को जानते हुए भी बलसूदन इन्‍द्र ने शुभकर्मकरने वाले उस परम धर्मात्‍मा शुक से पूछा। शुक ! इस वृक्ष के पत्‍ते झड़ गये, फल भी नहीं रहे । यह सूख जाने के कारण पक्षियेां के बसेरे लेने योग्‍य नहीं रह गया है । जब यह विशाल वन पड़ा हुआ है तब तुम इस ठूंठ वृक्ष का सेवन किसलिये करते हो?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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