महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 71 श्लोक 17-30

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकसप्ततितम (71) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद

‘तब सब सदस्यों से घिरकर उनके द्धारा पूजित होते हुए मैंने वैवस्वत यम से धीरे से कहा-‘धर्मराज। मैं आपके राज्य में आया हूं; मैं जिन लोको में जाने के योग्य होउ, उनमें जाने के लिये मुझे आज्ञा दीजिये। ‘तब यमराज ने मुझसे कहा-‘सौम्य। तुम मरे नही हो। तुम्हारे तपस्वी पिता ने इतना ही कहा था कि तुम यमराज को देखो। विप्रवर। वे तुम्हारे पिता प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी हैं। उनकी बात झूठी नहीं की जा सकती। ‘तात। तुमने मुझे देख लिया। अब तुम लौट जाओ। तुम्हारे शरीर का निर्माण करने वाले वे तुम्हारे पिताजी शोकमग्न हो रहे हैं। वत्स। तुम मेरे प्रिय अतिथि हो। तुम्हारा कौन-सा मनोरथ मैं पूर्ण करु?। तुम्हारी जिस-जिस वस्तु के लिये इच्छा हो, उसे मांग लो’। ‘उनके ऐसा कहने पर मैंने इस प्रकार उत्तर दिया-‘भगवन। मैं आपके उस राज्य में आ गया हूं, जहां से लौटकर जाना अत्यंत कठिन है। यदि मैं आपकी दृष्टि में वर पाने के योग्य होऊं तो पुण्यात्मा पुरुषों को मिलने वाले समृद्धिशाली लोको का मैं दर्शन करना चाहता हूं। ‘द्धिजेन्द्र। तब यम देवता ने वाहनो से जुते हुए उत्तम प्रकाश से युक्त तेजस्वी रथ पर मुझे बिठाकर पुण्यात्माओं को प्राप्त होने वाले अपने यहां के सभी लोकों का मुझे दर्शन कराया। ‘तब मैंने महा मनस्वी पुरुषो को प्राप्त होने वाले वहां की तेजोमय भवनो का दर्शन किया। उनके रुप-रंग और आकार-प्रकार अनेक तरह के थे। उन भवनो का सब प्रकार के रत्नो द्धारा निर्माण किया गया था । ‘कोई चन्द्रमण्डल के समान उज्ज्वल थे। किन्हीं पर क्षुद्र घंटियो से युक्त झालरें लगी थीं। उनमें सैंकड़ों कक्षाएं और मंजिले थीं। उनके भीतर जलाशय और वन-उपवन सुशोभित थे। कितनो का प्रकाश नीलमणिमय सूर्य के समान था। कितने ही चांदी और सोने के बने हुए थे। किन्ही-किन्ही भवनो के रंग प्रातः कालीन सूर्य के समान लाल थे। उनमें से कुछ विमान या भवन तो स्थावर थे औेर कुछ इच्छानुसार विचरने वाले थे।

‘उन भवनो में भक्ष्य और भोज्य पदार्थों के पर्वत खडे थे। वस्त्रो और शैय्याओं के ढेर लगे थे तथा सम्पूर्ण मनोवांछित फलों को देने वाले बहुत-से वृक्ष उन गृहों की सीमा के भीतर लहालहा रहे थे। ‘उन दिव्य लोकों में बहुत-सी नदियां, गलियां, सभाभवन, बावडियां, तालाब और जोतकर तैयार खडे़ हुए घोषयुक्त सहस्त्रों रथ मैंने सब और देखे थे। ‘मैंने दूध बहाने वाली नदियां, पर्वत, घी और निर्मल जल भी देखे तथा यमराज की अनुमति से और भी बहुत-से पहले के न देखे हुए प्रदेशों का दर्शन किया। ‘उन सब को देखकर मैंने प्रभावशाली पुरातन देवता धर्मराज से कहा- ‘प्रभो। ये जो घी और दूध की नदियां बहती रहती हैं, जिनका स्त्रोत कभी सूखता नहीं है, किनके उपभोग में आती हैं- इन्हें किन का भोजन नियत किया गया है?’‘यमराज ने कहा- ब्रह्मन। तुम इन नदियों को उन श्रेष्ठ पुरूषों का भोजन समझो, जो गौरस दान करने वाले हैं। जो गोदान में तत्पर हैं, उन पुण्यात्माओं के दूसरे भी सनातन लोग विद्यमान हैं, जिनके दुःख-शोक से रहित पुण्यात्मा भरे पड़े हैं। ‘‘विप्रवर। केवल इनका दान मात्र ही प्रषस्त नहीं है; सुपात्र ब्राह्माण, उत्तम समय, विषिष्ठ गौ तथा दान की सर्वोत्तम विधि- इन सब बातों को जानकर ही गोदान करना चाहिये। गौओं का आपस में जो तारतम्य है, उसे जानना बहुत कठिन काम है और अग्नि एवं सूर्य के समान तेजस्वी पात्र को पहचानना भी सरल नहीं है ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।