महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 75 श्लोक 1-18

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पञ्चसप्ततितम (75) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

व्रत, नियम, दम, सय,ब्रह्मचर्य, माता-पिता, गुरु आदि की सेवाकी महत्‍ता

युधिष्ठिर ने कहा- प्रभू। आपने धर्म का उपदेश करके उसमें मेरा दृढ़ विश्‍वास उत्पन्न कर दिया है। पितामह। अब मैं आपसे एक और संदेह पूछ रहा हूं, उसके विषय में मुझे बताइये। महाद्युते। व्रतों का क्या और कैसा फल बताया गया है? नियमों के पालन और स्वाध्याय का भी क्या फल है? दान देने, वेद धारण करने और उन्हें पढाने का क्या फल होता है? यह सब मैं जानना चाहता हूं। पितामह। संसार में जो प्रतिग्रह नहीं लेता, उसे क्या फल मिलता है? तथा जो वेदों का ज्ञान प्रदान करता है, उसके लिये कौनसा फल देखा गया है। अपने कर्तव्य के पालन में तत्पर रहने वाले शूरवीरों को भी किस फल की प्राप्ति होती है? शौचाचार का तथा ब्रह्मचर्य के पालन का क्या फल बताया गया है? पिता और माता की सेवा से कौन-सा फल प्राप्त होता है? आचार्य एवं गुरू की सेवा से तथा प्राणियों पर अनुग्रह एवं दयाभाव बनाये रखने से किस फल की प्राप्ति होती है। धर्मज्ञ पितामह। यह सब मैं यथावत रूप से जानना चाहता हूं। इसके लिये मेरे मन में बड़ी उत्कंठा है। भीष्मजी ने कहा - युधिष्ठिर । जो मनुष्य शास्त्रोक्त विधि से किसी व्रत को आरम्भ करके उसे अखण्ड रूप से निभा देते हैं, उन्हें सनातन लोकों की प्राप्ति होती है । राजन। संसार में नियमों के पालन का फल तो प्रत्यक्ष देखा जाता है। तुमने भी यह नियमों और यज्ञों का ही फल प्राप्त किया है। वेदों के स्वाध्याय का फल भी इहलोक और परलोक में भी देखा जाता है। स्वाध्यायशील द्विज इहलोक और ब्रह्मलोक में भी सदा आनन्द भोगता है। राजन। अब तुम मुझसे विस्तार पूर्वक दम (इन्द्रिय संयम) के फल का वर्णन सुनो। जितेन्द्रिय पुरूष सर्वत्र सुखी और सर्वत्र संतुष्ट रहते हैं। वे जहां चाहते हैं वहीं चले जाते हैं और जिस वस्तु की इच्छा करते हैं वही उन्हें प्राप्त हो जाती है। वे सम्पूर्ण शत्रुओं का अन्त कर देेते हैं। इसमें संशय नहीं है। पाण्डुनन्दन। जितेन्द्रिय पुरूष सर्वत्र सम्पूर्ण मनचाही वस्तुऐं प्राप्त कर लेते हैं। वे अपनी तपस्या, पराक्रम, दान तथा नाना प्रकार के यज्ञों से स्वर्गलोक में आनन्द भोगते हैं। इन्द्रियों का दमन करने वाले पुरूष क्षमाशील होते हैं। दान से दम का स्थान ऊंचा होता है। दानी पुरूष ब्राह्माण को कुछ दान करते समय कभी क्रोध भी कर सकता है; परंतु दमनशील या जितेन्द्रिय पुरूष कभी क्रोध नहीं करता;इसलिये दम (इन्द्रिय संयम) दान से श्रेष्ठ है। जो दाता बिना क्रोध किये दान करता है उसे सनातन (नित्य) लोक प्राप्त होते हैं। दान करते समय यदि क्रोध आ जाये तो वह दान के फल को नष्ट कर देता है; इसलिये उस क्रोध को दबाने वाला जो दमनामक गुण है, वह दान से श्रेष्ठ माना गया है। महाराज।नरेश्‍वर। सम्पूर्ण लोकों में निवास करने वाले ऋषियों के स्वर्ग में सहस्त्रों अदृश्‍य स्थान हैं, जिनमें दम के पालन द्वारा महान लोकों की इच्छा रखने वाले महर्षि और देवता इस लोक से जाते हैं; अतः ‘दम’ दान से श्रेष्ठ है। नरेन्द्र।शिष्‍यों का वेद पढाने वाला अध्यापक क्लेश सहन करने के कारण अक्षय फल का भागी होता है। अग्नि में विधि पूर्वक हवन करके ब्राह्माणब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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