महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 76 श्लोक 13-22

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षट्सप्ततितम (76) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: षट्सप्ततितम अध्याय: श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद

‘इसके बाद प्रथम दृष्टि पथ में आया हुआ दाता पहले विधि पूर्वक निम्‍नांकितआधे श्‍लोक का उच्चारण करे ‘-गौओ। तुम्हारा जो रूवरुप है, वही मेरा भी है- तममें और हममें कोई अन्तर नहीं है; अतः आज तुम्हें दान में देकर हमनें अपने आपको ही दान कर दिया है।’ दाता के ऐसा कहने पर दान लेने वाला गोदान विधि का ज्ञाता ब्राह्माण शेष आधे श्लोक का उच्चारण करे-गौओ। तुम शांत और प्रचण्ड़ रुप धारण करने वाली हो। अब तुम्हारे ऊपर दाता का ममत्व (अधिकार) नहीं रहा, अब तुम मेरे अधिकार में आ गयी हो; अतः अभीष्ट भोग प्रदान करके तुम मुझें और दाता को भी प्रसन्न करो’।‘जो गौ के निष्क्रय रुप से उसका मूल्य,वस्त्र अथवा सुवर्ण का दान करता है, उसको भी गोदाता ही कहना चाहिए। मूल्य,वस्त्र अथवा सुवर्ण में दी जाने वाली गौओं का नाम क्रमश: ऊर्ध्‍वास्‍या, भवितव्या और वैष्णवी है। संकल्प के समय इनके इन्ही नामों का उच्चारण करना चाहिये अर्थात-‘ऐसा कहकर ब्राह्माण को वह दान ग्रहण करने के लिये प्रेरित करना चाहिये। ‘इनके दान का फल क्रमश: इस प्रकार है- गौ का मूल्य देने वाला छत्तीस हजार वर्षों तक, गौ की जगह वस्त्र दान करने वाला आठ हजार वर्षो तक तथा स्थान में सुवर्ण दान देने वाला पुरुष बीस हजार वर्षो तक परलोक में सुख भोगता है। इस प्रकार गौओ के निष्क्रय दान का क्रमश: फल बताया गया हैं। इसे अच्छी तरह जान लेना चाहिये। साक्षात् गौ का दान लेकर जब ब्राह्माण अपने घर की और जाने लगता है, उस समय उसके आठ पग जाते-जाते ही दाता को अपने दान का फल मिल जाता है। ‘साक्षात गौ का दान करने वाला शीलवान् और उसका मूल्य देने वाला निर्भय होता है तथा गौ की जगह इच्छानुसार सुवर्ण दान करने वाला मनुष्य कभी दुःख में नही पड़ता हैं। जो प्रातःकाल उठकर नैत्यिक नियमों का अनुष्ठान करने वाला और महाभारत का विद्धान् है तथा जो विख्यात वैष्णव है, वे सब चन्द्रलोक में जाते है। ‘गौ का दान करने के पश्चात् मनुष्य को तीन रात तक गो व्रत का पालन करना चाहिये और यहां एक रात गौओ के साथ रहना चाहिये। कामाष्टमी से लेकर तीन रात तक गोबर, गोदुग्ध अथवा गौरस मात्र का आहार करना चाहिये। ‘ जो पुरुष एक बैल का दान करता है, वह देवव्रती (सूर्यमण्ड़ल का भेदन करके जाने वाला ब्राम्हचारी) होता है। जो एक गाय और एक बैल दान करता है उसे वेदों की प्राप्ति होती है, तथा जो विधि पूर्वक गो दान यज्ञ करता है उसे उत्तम लोक मिलते है, परंतु जो विधि को नहीं जानता, उसे उत्तम फल की प्राप्ति नहीं होती। ‘जो इच्छानुसार दूध देने वाली धेनु का दान करता है, वह मानो समस्त पार्थिव भोगो का एक साथ ही दान कर देता है। जब एक गो के दान का ऐसा माहात्म्य है तब हव्य-कव्य की राशि से सुशोभित होनें वाली बहुत-सी गौओ का यदि विधिपूर्वक दान किया जाये तो कितना अधिक फल हो सकता है? नौजवान बैलों का दान उन गौओं से भी अधिक पुण्यदायक होता है। ‘जो मनुष्य अपना शिष्य नहीं है, जो व्रत का पालन नहीं करता, जिसमें श्रद्धा का अभाव है तथा जिसकी बुद्धि कुटिल है, उसे इस गो-दान विधि का उपदेश न दे; क्यों कि यह सबसे गोपनीय धर्म है; अतः इसका यत्र-तत्र सर्वत्र प्रचार नहीं करना चाहिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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