महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 77 श्लोक 1-18

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

सप्तसप्ततितम (77) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

कपिला गौओं की उत्‍पत्ति और महिमा का वर्णन

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय। तदन्तर राजा युधिष्ठिर ने पुनः शान्तनुनन्दन भीष्म से गोदान की विस्तृत विधि तथा तत्सम्बन्धी धर्मों के विषय में विनय पर्वूक जिज्ञासा की। युधिष्ठिर बाले- भारत। आप गोदान के उत्तम गुणों का भलीभांति पुनः मुझसे वर्णन कीजिये। वीर ऐसा अमृतमय उपदेश सुनकर मैं तृप्त नहीं हो रहा हूं। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन। धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म केवल गोदान-सम्बन्धी गुणों का भलिभांति (विधिवत) वर्णन करने लगे। भीष्मजी ने कहा- बेटा। वात्सल्य भाव से युक्त, गुणवती और जवान गाय को वस्त्र उढाकर उसका दान करें। ब्राह्माण को ऐसी गाय का दान करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। असुर्य नाम के जो अन्धकारमय लोक (नरक) हैं उनमें गोदान करने वाले पुरूष को नहीं जाना पड़ता, जिसका घास खाना और पानी पीना प्रायः समाप्त हो चुका हो, जिसका दूध नष्ट हो गया है, जिसकी इन्द्रिया का न दे सकती हों, जो वुढापा और रोग से आक्रान्त होने के कारण शरीर से जीर्ण-षीर्ण हो बिना पानी की बावड़ी समान व्यर्थ हो गयी हो, ऐसी गौ का दान करके मनुष्य ब्राह्माण को व्यर्थ कष्ट में डालता है और स्वयं भी घोर नरक में पड़ता है। जो क्रोध करने वाली दुष्टा, रोगिनी और दुबली-पतली हो तथा जिसका दाम न चुकाया गया हो, ऐसी गौ का दान करना कदापि उचित नहीं है। जो इस तरह की गाय देकर ब्राह्माण को व्यर्थ कष्ट में डालता है उसे निर्वल और निष्फल लोक ही प्राप्त होते हैं । हुष्ट-पुष्ट, सुलक्षणा, जवान तथा उत्तम गंध वाली गाय की सभी लोग प्रशंसा करते हैं। जैसे नदियों में गंगा श्रेष्ठ है, वैसे ही गौओं में कपिला गौ उत्तम मानी गयी है। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। किसी भी रंग की गाय का दान किया जाये, गोदान तो एक-सा ही होगा? फिर सत्पुरूषों ने कपिला गौ की ही अधिक प्रशंसा क्यों की है? मैं कपिला के महान प्रभाव को विशेष रूप से सुनना चाहता हूं। मैं सुनने में समर्थ हूं और आप कहने मे। भीष्मजी ने कहा- बेटा। मैंने बड़े-बूढ़ों के मुंह से रोहिणी (कपिला) की उत्पत्ति का जो प्राचीन वृतांत सुना है, वह सब तुम्हे बता रहा हूं। सृष्टि के प्रारंभ में स्वयम्भू व्रम्हाजी ने प्रजापति दक्ष को यह आज्ञा दी ‘तुम प्रजा की सृष्टि करो किंतु प्रजापति दक्ष ने प्रजा के हित की इच्छा से सर्वप्रथम उनकी आजीविका का ही निर्माण किया। प्रभू। जैसे देवता अमृत का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाक करते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रजा आजीविका के सहारे जीवन धारण करती है। स्थावर प्राणियों से जंगम प्राणी सदा श्रेष्ठ हैं। उनमें भी मनुष्य और मनुष्यों में भी ब्राह्माण श्रेष्ठ है; क्यांकि उन्हीं में यज्ञ प्रतिष्ठित है। यज्ञ से सोम की प्राप्ति होती है और वह यज्ञ गौओं में प्रतिष्ठित है, जिससे देवता आनंदित होते हैं अतः पहले पहले आजीविका है फिर प्रजा। समस्त प्राणी उत्पन्न होते ही जीविका के लिये कोलाहल करने लगे। जैसे भूखे-प्यासे बालक अपने मां-बाप के पास जाते हैं, उसी प्रकार समस्त जीव जीविका दाता दक्ष के पास गये। प्रजाजनों की इस स्थिति पर मन-ही-मन विचार करके भगवान प्रजापति ने प्रजावर्ग की आजीविका के लिये उस समय अमृत का पान किया । अमृत पीकर जब वे पुर्ण तृप्त हो गये, तब उनके मुख से सुरभि (मनोहर) गंध निकलने लगी। सुरभि गंध के निकलने के साथ ही ‘सुरभि’ नामक गौ प्रकट हो गयी जिसे प्रजापति ने अपने मुख से प्रकट हुई पुत्री के रूप में देखा। उस सुरभि ने बहुत-सी ‘सौरभेयी’ नाम वाली गौओं को उत्पन्न किया, जो सम्पूर्ण जगत के लिये माता समान थी। उन सब का रंग सुवर्ण के समान उद्दीप्त हो रहा था। वे कपिला गौऐं प्रजाजनों के लिये आजीविका रूप दूध देने वाली थी।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।