महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 7 श्लोक 17-28

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सप्‍तम (7) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्‍तम अध्याय: श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद

स्‍त्री - संबंधी भोगों का परित्‍याग करके त्रिकाल स्‍नान करते हुए वायु पीकर रहने से यज्ञ का फल प्राप्‍त होता है । सत्‍य से मनुष्‍य स्‍वर्ग को और दीक्षा से उत्‍तम को कुल को पाता है । जो ब्राह्माण सदा जल पीकर रहा है, अग्निहोत्र करता है और मंत्र-साधना में संलग्‍न रहता है, उसे राज्‍य मिलता है और निराहारव्रत करने से मनुष्‍य स्‍वर्ग लोग में जाता है । पृथ्‍वीनाथ ! जो पुरूष बारह वर्षों तक के लिये व्रत की दीक्षा लेकर अन्‍न का त्‍याग करता और तीर्थों में स्‍नान करता रहता है, उसे रणभूमि में प्राण त्‍यागने वाले वीर से भी बढ़कर उत्‍तम लोक की प्राप्ति होती है । जो सम्‍पूर्ण वेदों का अध्‍ययन कर लेता है, वह तत्‍काल दु:ख से मुक्‍त हो जाता है तथा जो मन से धर्म का आचरण करता है, उसे स्‍वर्गलोक की प्राप्ति होती है। खोटी बुद्धिवाले पुरूषों के लिये जिसका त्‍याग करना कठिन है, जो मनुष्‍य के जीर्ण हो जाने पर भी स्‍वयं जीर्ण नहीं होती तथा जो प्राणनाशक रोग के समान सदा कष्‍ट देती रहती है, उस तृष्‍णा का त्‍याग कर देने वाले पुरूष को ही सुख मिलता है। जैसे बछड़ा हजारों गौओं के बीच में अपनी माता को ढूंढ लेता है, उसी प्रकार पहले का किया हुआ कर्म कर्ता को पहचान कर उसका अनुसरण करता है । जैसे फूल और फल किसी की प्रेरणा न होने पर भी अपने समय का उल्‍लंघन नहीं करते – ठीक समय पर फूलने-फलने लग जाते हैं, वैसे ही पहले का किया हुआ कर्म भी समय पर फल देता ही है। मनुष्‍य जीर्ण (जराग्रस्‍त) होने पर उसके केश जीर्ण होकर झड़ जाते हैं, वृद्ध पुरूष के दांत भी टूट जाते हैं, नेत्र और कान भी जर्णी होकर अन्‍धे-बहरे हो जाते हैं । केवल तृष्‍णा ही जीर्ण नहीं होती है (वह सदा नयी-नवेली बनी रहती है)। मनुष्‍य जिस व्‍यवहार से पिता को प्रसन्‍न करता है, उससे भगवान प्रजापति प्रसन्‍न होते हैं । जिस बर्ताव से वह माता को संतुष्‍ट करता है, उससे पृथ्‍वी देवी की भी पूजा हो जाती है तथा जिससे वह उपाध्‍याय को तृप्‍त करता है, उसके द्वारा परब्रहृा परमात्‍मा की पूजा सम्‍पन्‍न हो जाती है| जिसने अन तीनों का आदर किया, उसके द्वारा सभी धर्मों का आदर हो गया और जिसने इन तीनों का अनादर कर दिया, उसकी सम्‍पूर्ण यज्ञादिक क्रियाएं निष्‍फल हो जाती हैं। वैशम्‍पायनजी कहते है – जनमेजय ! भीष्‍मजी की यह बात सुनकर समस्‍त श्रेष्‍ठ कुरूवंशी आश्‍यर्चकित हो उठे । सबके मन में हर्षजनित उल्‍लास भर गया । उस समय सभी बड़े प्रसन्‍न हुए। भीष्‍म जी कहते हैं – युधिष्ठिर ! वेदमंत्रों का व्‍यर्थ (अशुद्ध) उपयोग (उच्‍चारण) करने पर जो पाप लगता है, सोमयाग को दक्षिणा आदि न देने के कारण व्‍यर्थ कर देने पर जो दोष लगता है तथा विधि और मंत्र के बिना अग्नि के निरर्थक आहुति देने पर जो पाप होता है, वह सारा पाप मिथ्‍या भाषण करने से प्राप्‍त होता है। राजन् ! शुभ और अशुभ फल की प्राप्ति के विषय में महर्षि व्‍यास ने ये सब बातें बतायी थीं, जिन्‍हें मैंने इस समय तुमसे कहा है । अब और क्‍या सुनाना चाहते हो?

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि कर्मफलिकोपाख्‍या ने सप्‍तमोऽध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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