महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 4
षण्णवतितम (96) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
आचमन के समय मौन होकर तीन बार जल पीये। उस जल में किसी प्रकार की आवाज न हो तथा आचमन के पश्चात् वह जल हृदय तक पहुंचे। विद्वान पुरूष को चाहिये कि वह अंगूठे के मूलभाग से दो बार मुह पोंछें। इसके बाद इन्द्रियों के छिद्रों का स्पर्श करे । वह प्रथम बार जो जल पीता है, उससे ऋग्वेद को तृप्त करता है, द्वितीय बार का जल युजर्वेद को और तृतीय बार का जल सामवेद को तृप्त करता है। पहली बार जो मुख का मार्जन किया जाता है, उससे अथर्ववेद तृप्त होता है और द्वितीय बारे के मार्जन से इतिहास-पुराण एवं स्मृतियों के अधिष्ठाता देवता संतुष्ट होते हैं । मुखमार्जन के पश्चात द्विज जो अंगुलियों से नेत्रों का स्पर्श करता है, उसके द्वारा वह सूर्यदेव को तृप्त करता है। नासिका के स्पर्श से वायु को और दोनों कानों के स्पर्श से वह दिशाओं को संतुष्ट करता है । आचमन करने वाला पुरूष अपने मस्तक पर जो हाथ रखता है, उसके द्वारा वह ब्रह्माजी को तृप्त करता है और ऊपर की ओर जो जल फेंकता है, उसके द्वारा वह आकाश के अधिष्ठाता देवता को संतुष्ट करता है । वह अपने दोनों पैरों पर जो जल डालता है, इससे भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। आचमन करने वाला पुरूष पूर्व या उत्तर की ओर मुंह करके अपने हाथ को घुटने के भीतर रखकर जल का स्पर्श करे। भोजन आदि सभी अवसरों पर सदा आचमन करने की यही विधि है । यदि दांतों अन्न लगा हो तो अपने को जूठा मानकर पुनः आचमन करे, यह शौचाचार की विधि बतायी गयी। किसी वस्तु की शुद्धि के लिये उस पर जल छिड़कना भी कर्तव्य माना जाता है । (साधु-सेवा के उद्वेश्य से) घर से निकलते समय शूद्र के लिये भी यह शौचाचार की विधि देखी गयी है। जिसने मन को वश में किया है तथा जो अपने हित की इच्छा रखता है, ऐसे सुयशकामी शूद्र को चाहिये कि वह सदा शौचाचार से सम्पन्न होकर ही संन्यासियों के निकट जाये और उनकी सेवा आदि का कार्य करे। क्षत्रिय आरम्भ (उत्साह) रूप यज्ञ करने वाले होते हैं। वैश्यों के यज्ञ में हविष्य (हवनीय पदार्थ) की प्रधानता होती है, शूद्रों का यज्ञ सेवा ही है तथा ब्राम्हण जप रूपी यज्ञ करने वाले होते हैं । शूद्र सेवा से जीवन निर्वाह करने वाले होते हैं। वैश्य से व्यापारजीवी हैं, दुष्टों का दमन करना क्षत्रियों की जीवन वृति है और ब्राम्हण वेदों के स्वाध्याय से जीवन निर्वाह करते हैं । क्योंकि ब्राम्हण तपस्या से, क्षत्रिय पालन आदि से वैश्य अतिथि सत्कार से और शूद्र सेवावृति से शोभा पाते हैं । अपने मन को वश में रखने वाले शूद्र को सदा ही तीन वर्णों की विशेषतः आश्रम वासियों की सेवा करनी चाहिये । त्रिवर्ण की सेवा में अषक्त हुए शूद्र को अपनी शक्ति, वुद्वि, धर्म तथ शास्त्र ज्ञान के अनुसार आश्रमवासियों की सेवा करनी चाहिये। विशेषतः सन्यास आश्रम में रहने वाले भिक्षु की सेवा उसके लिये परम कर्तव्य है। शास्त्रों के सिद्वान्त- ज्ञान में निपुण शिष्ट पुरूष चारों आश्रमों में संन्यास को ही प्रधान मानते हैं । शिष्ट पुरूष वेदों और स्मृतियों के विधान के अनुसार जिस कर्तव्य का उपदेश करें असमर्थ पुरूष को उसी का अनुष्ठान करना चाहिये। उसके लिये वही धर्म निश्चित किया गया है ।
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