महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 6

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षण्णवतितम (96) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: षण्णवतितम अध्याय: भाग-6 का हिन्दी अनुवाद

अपने-आपको इस प्रकार सावधानी के साथ सेवा में लगाये रखना चाहिये जिससे वे साधु लोग प्रसन्न हो। शूद्र को इस प्रकार विचार करना चाहिये कि ‘मैं तो शास्त्रों में धर्मतः तीनों वर्णों का सेवक वताया गया हूं। फिर जो संन्‍यास आश्रम में रहकर जो कुछ मिल जाये, उसी से निर्वाह करने वाले बड़े-बूढ़े सन्यासी हैं, उनकी सेवा के विषय में तो कहना ही क्या है? (उनकी सेवा करना तो मेरा परम धर्म है ही) । ‘जो केवल ज्ञानदर्शी, वीतराग सन्यासी हैं, उनकी सेवा मुझे विशेष रूप से मन को वश में रखते हुए करनी चाहिये । ‘उनकी कृपा और तपस्या से मैं मनोवांछित शुभ गति प्राप्त कर लूंगा । ’ऐसा निश्‍चय करके यदि शूद्र पूर्वोक्त विधि से संन्‍यासियों का सेवन करे तो परम गति को प्राप्त होता है । शूद्र सेवा कर्म से जिस मनोवांछित गति को प्राप्त कर लेता है, वैसी गति दान तथा उपवास आदि के द्वारा भी नहीं प्राप्त कर सकता । मनुष्य जैसे जल से कपड़े धोता है, उस जल की स्वच्छता के अनुसार ही वह वस्त्र स्वच्छ होता है । शूद्र भी इसी मार्ग से चलकर जैसे पुरूष का सेवन करता है, संसर्गवश वह शीध्र वैसा हो जाता है, इसमें संशय नहीं है । अत शूद्र को चाहिये कि अपने मन को वश में करके प्रयत्न पूर्वक संन्‍यासियों की सेवा करे। जो राह चलने से थके-मांदे कष्ट पा रहे हों तथा रोग से पीड़ित हों, उन संन्‍यासियों की उस आपत्ति के समय यत्न और नियम के साथ विशेष सेवा करें । उन कुशासन, मृगचर्म और भिक्षा पात्र की भी देखभाल करें तथा उनकी रूचि के अनुसार सारा कार्य करता रहे । सब कार्य इस प्रकार सावधानी से करे, जिससे कोई अपराध न बनने पावे। सन्यासी यदि रोग ग्रस्त हो जाये तो सदा उद्यत रहकर उनके कपड़े धोवे। उनके लिये औषधि ले आवे तथा उनकी चिकित्सा के लिये प्रयत्न करे । भिक्षुक बीमार होने पर भी भिक्षाटन के लिये जाये। विद्वान चिकित्सकों के यहां उपस्थित हो तथा रोग-निवारण के लिये उपयुक्त विशुद्ध औषधियों का संग्रह करें। जो चिकित्सक प्रसन्नता पूर्वक औषधि दे, उसी से संन्यासी को औषध लेना चहिये। अश्रद्धापूर्वक दी हुई औषधियों को संन्यासी अपने उपयोग न ले । जो श्रद्वा पूर्वक दी गयी और श्राद्ध से ही ग्रहण की गई हों, उसी औषधि के सेवन से धर्म होता है और रोगों से छुटकारा भी मिलता है । शूद्र को चाहिये कि जब तक यह शरीर छूट न जाये तब तक इसी प्रकार विधि पूर्वक सेवा करता रहे। धर्म का उल्लघंन करके उन साधु-संन्‍यासियों के प्रति विपरीत आचरण न करे । शीत-उष्म आदि सारे द्वंद स्वभाव से ही आते-जाते रहते हैं, समस्त पदार्थ स्वभाव से ही उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं। सारे त्रिगुणमय पदार्थ समुद्र की लहरों के समान उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं । जो वुद्विमान एवं तत्वज्ञ पुरूष ऐसा मानता है, वह जल से निर्लिप्त रहने वाले पद पघपत्र के समान पाप से लिप्त नहीं होता । इस प्रकार शूद्रों का आलस्य शून्य होकर संन्‍यासियों की सेवा के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये। वह सब प्रकार की छोटी-बड़ी सेवाओं द्वारा ऐसी चेष्टा करे, जिससे वे सन्यासी सदा संतुष्ट रहें ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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