महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 9 श्लोक 19-28

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नवम (9) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: नवम अध्याय: श्लोक 19-28 का हिन्दी अनुवाद


यही उपदेश दिया करते थे कि प्रतिज्ञा कर लेने पर वह वस्‍तु ब्राह्माण को दे ही देनी चाहिए। किसी श्रेष्‍ठ ब्राह्माण की आशा भंग नहीं करनी चाहिए। पृथ्‍वीनाथ ! ब्राह्माण को पहे आशा दे देने पर वह समिधा से प्रज्‍वलित हुई अग्नि के समान उद्दीप्‍त हो उठता है ।। राजन् ! पहले की लगी हुई आशा भंग होने से अत्‍यंत क्रोध में भरा हुआ ब्राह्माण जिसकी ओर देख लेता है, उसे उसी प्रकार जलाकर भस्‍म कर डालता है, जैसे अग्नि सूखी लकड़ी अथवा तिनकों के बोझ को जला देती है। भारत ! वही ब्राह्माण जब आशापूर्ति से संतुष्‍ट होकर वाणीद्वारा राजा का अभिनन्‍दन करता है - उसे आर्शीवाद देता है, तब उसके राज्‍य के लिये वह चिकित्‍सक के तुल्‍य हो जाता है। तथा उसदाता के पुत्र-पौत्र, बन्‍धु-बान्‍धव, पशु, मंत्री नगर ओर जनपद के लिये वह शांतिदायक बनकर उन्‍हें कल्‍याण का भागी बनाता और उन सबका पोषण करता है। इस पृथ्‍वी पर ब्राह्माण का उत्‍कृष्‍ट तेज सहस्‍त्र किरणों वाले सूर्य देव के समान दृष्टिंगोचर होता है। भरतश्रेष्‍ठ युधिष्ठिर ! इसलिये जो उत्‍तम योनि में जन्‍म लेना चाहता हो, उसे ब्राह्माण को देने की प्रतिज्ञा की हुई वस्‍तु अवश्‍य दे डालनी चाहिए। ब्राह्माण को दान देने से निश्‍चय ही परम उत्‍तम स्‍वर्गलोक को विशेष रूप से प्राप्‍त किया जा सकता है, क्‍योंकि दान महान् पुण्‍यकर्म है। इस लोक में ब्राह्माण को दान देने से देवता और पितर तृप्‍त होते है, इसलिये विद्वान पुरूष ब्रह्माण को अवश्‍य दान दे। भरतश्रेष्‍ठ ! ब्राह्माण महान् तीर्थ कहे जाते हैं, अत: वे किसी भी समय घर पर आ जायं तो बिना सत्‍कार किये उन्‍हें नहीं जाने देना चाहिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत दानधर्मपर्व में सियार और वानर का संवादविषयक नवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।

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