महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 170-181
प्रथम (1) अध्याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)
संजय ! विराट की राजधानी में गुप्त रूप से द्रौपदी के साथ पाँचों पाण्डव निवास कर रहे थे, परन्तु मेरे पुत्र और उनके सहायक इस बात का पता नहीं लगा सके; जब मैंने यह बात सुनी, मुझे यह निश्चय हो गया कि मेरी विजय सम्भव नहीं है। संजय ! जब मैंने सुना कि भीमसेन ने द्रौपदी के प्रति किये हुए अपराध का बदला लेने के लिये कीचकों के सर्वश्रेष्ठ वीर को उस के सौ भाईयों सहित युद्ध में मार डाला था, तभी से मुझे विजय की बिल्कुल आशा नहीं रह गयी थी। संजय ! जब मैंने सुना कि विराट की राजधानी में रहते समय महात्मा धनंजय ने एकमात्र रथ की सहायता से हमारे सभी श्रेष्ठ महारथियों को (जो गो-हरण के लिये पूर्ण तैयारी के साथ वहाँ गये थे) मार भगाया, तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही।
जिस दिन मैंने यह बात सुनी कि मत्स्यराज विराट ने अपनी प्रिय एवं सम्मानित पुत्री उत्तरा को अर्जुन के हाथ अर्पित कर दिय, परंतु अर्जुन ने अपने लिये नहीं, अपने पुत्र के लिये उसे स्वीकार किया, संजय ! उसी दिन से मैं विजय की आशा नहीं करता था। (वामनावतार के समय) यह सम्पूर्ण पृथ्वी जिनके एक डग में ही आ गयी बतायी जाती है, वे लक्ष्मी पति भगवान श्रीकृष्ण पूरे हृदय से पाण्डवों की कार्य-सिद्धि के लिये तत्पर हैं, जब यह बात मैंने सुनी, संजय ! तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही। जब देवर्षि नारद के मुख से मैंने यह बात सुनी कि श्रीकृष्ण और अर्जुन साक्षात नर और नारायण हैं और इन्हें मैंने ब्रह्मलोक में भली भाँति देखा है, तभी से मैंने विजय की आशा छोड़ दी। संजय ! जब मैंने सुना कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण लोक कल्याण के लिये शान्ति की इच्छा से आये हुए हैं और कौरव-पाण्डवों में शान्ति सन्धि करवाना चाहते हैं, परंतु वे अपने प्रयास में असफल होकर लौट गये तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही। संजय ! जब मैंने सुना कि कर्ण और दुर्योधन दोनों ने यह सलाह की है कि श्रीकृष्ण को कैद कर लिया जाये और श्रीकृष्ण ने अपने-आपको अनेक रूपों में विराट या अखिल विश्व के रूप में दिखा दिया, तभी से मैंने विजयाशा त्याग दी थी। जब मैंने सुना यहाँ से श्रीकृष्ण के लौटते समय अकेली कुन्ती उनके रथ के सामने आकर खड़ी हो गयी और अपने हदय की आर्ति-वेदना प्रकट करने लगी, तब श्री कृष्ण ने उसे भली भाँति सान्त्वना दी। संजय ! तभी से मैंने विजय की आशा छोड़ दी। संजय ! जब मैंने सुना कि श्रीकृष्ण पाण्डवों के मन्त्री हैं और शान्तनु नन्दन भीष्म तथा भारद्वाज द्रोणाचार्य उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं, तब मुझे विजय-प्राप्ति किंचित भी आशा नहीं रही। जब कर्ण ने भीष्म से यह बात कह दी कि जब तक तुम युद्ध करते रहोगे तब तक मैं पाण्डवों से नहीं लडूँगा, इतना ही नहीं-वह सेना को छोड़कर हट गया, संजय! तभी से मेरे मन में विजय के लिये कुछ भी आशा नहीं रह गयी। संजय जब मैंने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण, वीरवर अर्जुन और अतुलित शक्तिशाली गाण्डीव धनुष-ये तीनों भयंकर प्रभावशाली शक्तियाँ इकटठी हो गयी हैं, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी।
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