महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 196-207
प्रथम (1) अध्याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)
जब संग्राम भूमि में रथ के घोड़े अपना काम करने में असमर्थ हो गये, तब रथ के समीप ही खड़े होकर पाण्डव वीर अर्जुन ने अकेले ही सब योद्धाओं का सामना किया और उन्हें रोक दिया। मैंने जिस समय यह बात सुनी, संजय ! उसी समय मैंने विजय की आशा छोड़ दी। जब मैंने सुना कि वृष्णिवंशावतंस युयुधान-सात्यकि ने अकेले ही द्रोणाचार्य की उस सेना को, जिसका सामना हाथियों की सेना भी नहीं कर सकती थी, तितर-बितर और तहस-नहस कर दिया तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास पहुँच गये। संजय ! तभी से मेरे लिये विजय की आशा असम्भव हो गयी। संजय ! जब मैंने सुना कि वीर भीमसेन कर्ण के पंजे में फँस गये थे, परंतु कर्ण ने तिरस्कार पूर्वक झिड़क कर और धनुष की नोक चुभाकर ही छोड़ दिया तथा भीमसेन मृत्यु के मुख से बच निकले। संजय ! तभी मेरी विजय की आशा पर पानी फिर गया। जब मैंने सुना द्रौणाचार्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, कर्ण और अश्वथामा तथा वीर शल्य ने भी सिन्धुराज जयद्रथ का वध सह लिया, प्रतीकार नहीं किया। संजय ! तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी। संजय ! देवराज इन्द्र ने कर्ण को कवच के बदले एक दिव्य शक्ति दे रखी थी और उसने उसे अर्जुन पर प्रयुक्त करने के लिये रख छोड़ा था, परंतु मायापति श्रीकृष्ण ने भयंकर राक्षस घटोत्कच पर उसे छुड़वाकर उससे भी वंचित करवा दिया। जिस समय यह बात मैंने सुनी, उसी समय मेरी विजय की आशा टूट गयी। जब मैंने सुना कि कर्ण और घटोत्कच के युद्ध में कर्ण ने वह शक्ति घटोत्कच पर चला दी, जिससे रणांगण में अर्जुन का वध किया जा सकता था। संजय! तब मैंने विजय की आशा छोड़ दी। संजय! जब मैंने सुना कि आचार्य द्रोण पुत्र की मृत्यु के शोक से शस्त्रादि छोड़कर आमरण अनशन करने के निश्रय से अकेले रथ के पास बैठे थे और धृष्टद्युम्रने धर्म युद्ध की मर्यादा का उल्लघन करके उनहें मार डाला, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा जैसे वीर के साथ बड़े-बड़े वीरों के सामने ही माद्रीनन्दन नकुल अकेले ही अच्छी तरह युद्ध कर रहे हैं। संजय ! तभी मुझे जीत की आशा न रही। जब द्रोणाचार्य की हत्या के अनन्तर अश्वत्थामा ने दिव्य नारायणस्त्र का प्रयोग किया; परंतु उससे यह पाण्डवों का अन्त नहीं कर सका। संजय ! तभी मेरी विजय की आशा समाप्त हो गयी। जब मैंने सुना कि रणभूमि में भीमसेन ने अपने भाई दुःशासन का रक्तपान किया, परंतु वहाँ उपस्थित सत्पुरुषों में से किसी एक ने भी निवारण नहीं किया। संजय ! तभी से मुझे विजय की आशा बिल्कुल नहीं रह गयी। संजय! वह भाई का भाई से युद्ध देवताओं की गुप्त प्रेरणा से हो रहा था। जब मैंने सुना कि भिन्न-भिन्न युद्ध भूमियों में कभी पराजित न होने वाले अत्यन्त शूरशिरोमणि कर्ण को पृथा पुत्र अर्जुन ने मार डाला, तब मेरी विजय की आशा नष्ट हो गयी। जब मैंने सुना धर्मराज युधिष्ठिर से द्रोण पुत्र अश्वत्थामा, शूरवीर दुःशासन एवं उग्र योद्धा कृतवर्मा को भी युद्ध में जीत रहे हैं, संजय ! तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रह गयी।
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