महाभारत आदि पर्व अध्याय 104 श्लोक 1-15

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चतुरधिकशततम (104) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: चतुरधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

भीष्‍म की सम्‍मति द्वारा व्‍यास का आवाहन और व्‍यासजी का माता की आज्ञा से कुरूवंश की वृद्धि के लिये विचित्रवीर्य की पत्नियों के गर्भ से संतानोत्‍पादन करने की स्‍वीकृति देना

भीष्‍मजी कहते हैं- मात: ! भरतवंशी की संतान परम्‍परा को बढ़ाने और सुरक्षित रखने के लिये जो नियम उपाय हैं, उसे मैं बता रहा हूं; सुनो। किसी गुणवान् ब्राह्मण को धन देकर बुलाओ, जो विचित्रवीर्य की स्त्रियों के गर्भ से संतान उत्‍पन्न कर सके। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तब सत्‍यवती कुछ हंसती और साथ ही लजाती हुई भीष्‍मजी से इस प्रकार बोली। बोलते समय उसकी वाणी संकोच से कुछ अस्‍पष्ट हो जाती थी। उसने कहा- ‘महावाहु भीष्‍म’ ! तुम जैसा कहते हो वही ठीक है। तुम पर विश्वास होने से अपने कुल की संतति की रक्षा के लिये तुम्‍हें मैं एक बात बतलाती हूं। ‘ऐसे आपद्धर्म को देखकर वह बात तुम्‍हें बताये बिना मैं नहीं रह सकती। तुम्‍हीं हमारे कुल में मूर्तिमान् धर्म हो, तुम्‍हीं सत्‍य हो और तुम्‍ही परम गति हो। ‘अत: मेरी सच्ची बात सुनकर उसके बाद जो कर्तव्‍य हो, उसे करो ! ‘भरतश्रेष्ठ ! तुमने महाराज वसु का नाम सुना होगा। पूर्वकाल में मैं उन्‍हीं के वीर्य से उत्‍पन्न हुई थी। मुझे एक मछली ने अपने पेट में धारण किया था। एक परम धर्मज्ञ मल्‍लाह ने जल में मेरी माता को पकड़ा, उसके पेट से मुझे निकाला और अपने घर लाकर अपनी पुत्री बनाकर रक्‍खा। मेरे उन धर्मपरायण पिता के पास एक नौका थी, जो (धनके लिये नहीं ) धर्मार्थ चलायी जाती थी। ‘एक दिन मैं नाव पर गयी हुई थी। उन दिनों मेरे यौवन का प्रारम्‍भ था। उसी समय धर्मज्ञों में श्रेष्ठ बुद्धिमान् महर्षि पराशर यमुना नदी पार करने के लिये मेरी नाव पर आये। मैं उन्‍हें पार ले जा रही थी, तब तक वे मुनिश्रेष्ठ काम-पीड़ित हो मेरे पास आ मुझे समझाते हुए मधुर वाणी में बोले और उन्‍होंने मुझसे अपने जन्‍म और कुल का परिचय दिया। इस पर मैंने कहा- ‘भगवन् ! मैं तो निषाद की पुत्री हूं’। ‘भारत ! एक ओर मैं पिताजी से डरती थी और दूसरी ओर मुझे मुनि के शाप का भी डर था। उस समय महर्षि ने मुझे दुर्लभ वर देकर उत्‍साहित किया, जिससे मैं उनके अनुरोध को टाल न सकी। ‘यद्यपि मैं चाहती नहीं थी, तो भी उन्‍होंने मुझ अबला को अपने तेज से तिरस्‍कृत करके नौका पर ही मुझे अपने वश में कर लिया। उस समय उन्‍होंने कुहरा उत्‍पन्न करके सम्‍पूर्ण लोक को अन्‍धकार से आवृत कर दिया था। भारत ! पहले मेरे शरीर से अत्‍यन्‍त घृणित मछली की-सी बड़ी तीव्र दुर्गन्‍ध आती थी। उसको मिटाकर मुनि ने मुझे यह उत्तम गन्‍ध प्रदान की थी। ‘तदनन्‍तर मुनि ने मुझसे कहा- ‘तुम इस यमुना के ही द्वीप में मेरे द्वारा स्‍थापित इस गर्भ को त्‍यागकर फि‍र कन्‍या ही हो जाओगी’। ‘उस गर्भ से पराशरजी के पुत्र महान् योगी महर्षि व्‍यास प्रकट हुए। वे ही द्वैयापन नाम से विख्‍यात हैं। वे मेरे कन्‍यावस्‍था के पुत्र हैं। ‘वे भगवान् द्वैयापन मुनि अपने तपोवल से चारों वेदों का पृथक-पृथक विस्‍तार करके लोक में ‘व्‍यास’ पदवी को प्राप्त हुए हैं। शरीर का रंग सांवला होने से उन्‍हें लोग ‘कृष्‍ण’ भी कहते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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