महाभारत आदि पर्व अध्याय 104 श्लोक 35-54

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चतुरधिकशततम (104) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: चतुरधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 35-54 का हिन्दी अनुवाद

‘अनघ ! संतानोत्‍पादन तथा राज्‍य-शासन करने का इनका विचार नहीं है; अत: तुम अपने भाई के पारलौकिक हित का विचार करके तथा कुल की संतान-परम्‍परा की रक्षा के लिये भीष्‍म के अनुरोध और मेरी आज्ञा से सब प्राणियों पर दया करके उनकी रक्षा करने के उद्देश्‍य से और अपने अन्‍त:करण की कोमल वृत्ति को देखते हुए मैं जो कुछ कहूं, उसे सुनकर उसका पालन करो । तुम्‍हारे छोटे भाई की पत्नियां देवकन्‍याओं के समान सुन्‍दर रुप तथा युवावस्‍था से सम्‍पन्न हैं। उनके मन में धर्मत: पुत्र पाने की कामना है। पुत्र ! तुम इसके लिये समर्थ हो, अत: उन दोनों के गर्भ से ऐसी संतानों को जन्‍म दो, जो इस कुल-परम्‍परा की रक्षा तथा वृद्धि के लिये सर्वथा सुयोग्‍य हों’ । व्‍यासजी ने कहा- माता सत्‍यवती ! आप पर और अपर दोनों प्रकार के धर्मों को जानती हैं। महाप्रज्ञे ! आपकी बुद्धि सदा धर्म में लगी रहती है। अत: मैं आपकी आज्ञा से धर्म को दृष्टि में रखकर (काम के वश न होकर ही) आपकी इच्‍छा के अनुरुप कार्य करूंगा। यह सनातन मार्ग शास्त्रों में देखा गया है। मैं अपने भाई के लिये मित्र और वरुण समान तेजस्‍वी पुत्र उत्‍पन्न करूंगा। विचित्रवीर्य की स्त्रियों को मेरे बताये अनुसार एक वर्ष तक विधि पूर्वक व्रत (जितेन्द्रिय होकर केवल संतानार्थ साधन) करना होगा, तभी वे शुद्ध होंगी। जिसने व्रत का पालन नहीं किया है, ऐसी कोई भी स्त्री मेरे समीप नहीं आ सकती। सत्‍यवती ने कहा- बेटा ! ये दोनों रानियां जिस प्रकार शीघ्र गर्भ धारण करें, वह उपाय करो। राज्‍य में इस समय कोई राजा नहीं है। बिना राजा के राज्‍य की प्रजा अनाथ होकर नष्ट हो जाती है। यज्ञ-दान आदि क्रियाऐं भी लुप्त हो जाती हैं। उस राज्‍य में न वर्षा होती है, न देवता बास करते हैं। प्रभो ! तुम्‍ही सोचो, बिना राजा का राज्‍य कैसे सुरक्षित और अनुशासित रह सकता है। इसलिये शीघ्र गर्भाधान करो। भीष्‍म बालक को पाल-पोसकर बड़ा कर लेंगे। व्‍यासजी बोले- मां ! यदि मुझे समय का नियम न रखकर शीघ्र ही अपने भाई के लिये पुत्र प्रदान करना है, तो उन देवियों के लिये यह उत्तम व्रत आवश्‍यक है कि वे मेरे असुन्‍दर रुप को देखकर शान्‍त रहें, डरें नहीं। यदि कौसल्‍या (अम्बिका) मेरे गन्‍ध, रुप, वेष और शरीर को सहन कर ले तो वह आज ही एक उत्तम बालक को अपने गर्भ में पा सकती हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! ऐसा कहने के बाद महातेजस्‍वी मुनिश्रेष्ठ व्‍यासजी सत्‍यवती से फि‍र ‘अच्‍छा तो कौसल्‍या (ॠतु-स्नान के पश्चात्) शुद्ध वस्त्र और श्रंगार धारण करके शय्यापर मिलन की प्रतीक्षा करे’ यों कहकर अन्‍तर्धान हो गये। तदनन्‍तर देवी सत्‍यवती ने एकान्‍त में आयी हुई अपनी पुत्रवधु अम्बिका के पास जाकर उससे ( आपद् ) धर्म और अर्थ से युक्त हितकारक वचन कहा- ‘कौसल्‍ये ! मैं तुमसे जो धर्म संगत बात कह रही हूं, उसे ध्‍यान देकर सुनो। ‘मेरे भाग्‍य का नाश हो जाने से अब भरतवंश का उच्‍छेद हो चला है, यह स्‍पष्ट दिखाई दे रहा है। इसके कारण मुझे व्‍यथित और पितृकुल को पीड़ित देख भीष्‍म ने इस कुल की वृद्धि के लिये मुझे एक सम्‍मति दी है। बेटी ! उस सम्‍मति की सार्थकता तुम्‍हारे अधीन है। तुम भीष्‍म के बताये अनुसार मुझे उस अवस्‍था में पहुंचाओ, जिससे मैं अपने अभीष्ट की सिद्धि देख सकूं। सुश्रोणि ! इस नष्ट होते हुए भरतवंश का पुन: उद्धार करो । तुम देवराज इन्‍द्र के समान एक तेजस्‍वी पुत्र को जन्‍म दो। वही हमारे कुल के इस महान् राज्‍य-भार को वहन करेगा’। कौसल्‍या धर्म का आचरण करने वाली थी। सत्‍यवती ने धर्म को सामने रखकर ही उसे किसी प्रकार समझा-बुझाकर (बड़ी कठिनता से) इस कार्य के लिये तैयार किया। उसके बाद ब्राह्मणों, देवर्षियों तथा अतिथियों को भोजन कराया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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