महाभारत आदि पर्व अध्याय 110 श्लोक 17-27
दशाधिकशततम (110) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
‘सुन्दर मुख एवं सुन्दर भौहों वाली राजकुमारी ! तुम्हारे लिये जैसे पुत्र का निर्माण होगा, वह सुनो- शुचिस्मिते ! वह माता आदिति के दिये हुए दिव्य कुण्डलों और मेरे कवच को धारण किये हुए उत्पन्न होगा। उसका वह कवच किन्हीं अस्त्र-शस्त्रों से टूट न सकेगा। उसके पास कोई भी वस्तु ब्राह्मणों के लिये अदेय न होगी। मेरेकहने पर भी वह कभी अयोग्य कार्य या विचार को अपने मन में स्थान न देगा। ब्राह्मणों के याचना करने पर वह उन्हें सब प्रकार की वस्तुऐं देगा ही। साथ ही वह बड़ा स्वाभिमानी होगा। ‘रानी ! मेरी कृपा से तुम्हें दोष भी नहीं लगेगा।’ कुन्ति-राजकुमारी कुन्ती से यों कहकर प्रकाश और गरमी उत्पन्न करने वाले भगवान् सूर्य ने उसके साथ समागम किया इससे उसी समय एक वीर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ था। उसने जन्म से ही कवच पहन रक्खा था और वह देव कुमार के समान तेजस्वी तथा शोभा सम्पन्न था। जन्म के साथ ही कवच धारण किये उस बालक का मुख जन्मजात कुण्डली में प्रकाशित हो रहा था। इस प्रकार कर्ण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सब लोकों में विख्यात है। उत्तम प्रकाश वाले भगवान् सूर्य ने कुन्ती को पुन: कन्यात्व प्रदान किया। तत्पश्चात् तपने वालों में श्रेष्ठ भगवान् सूर्य देवलोक में चले गये। उस नवजात कुमार को देखकर वृष्णिवंश की कन्या कुन्ती के हृदय में बड़ा दु:ख हुआ। उसने एकाग्रचित्त से विचार किया कि अब क्या करने से अच्छा परिणाम निकलेगा। उस समय कुटुम्बीजनों के भय से अपने उस अनुचित कृत्य को छिपाती हुई कुन्ती ने महाबली कूमार कर्ण को जल में छोड़ दिया। जल में छोड़े हुए उस नवजात शिशु को महायशस्वी सूतपुत्र अधिरथ ने, जिसकी पत्नी का नाम राधा था, ले लिया। उसने औरउसकी पत्नी ने उस बालक को अपना पुत्र बना लिया। उन दम्पति ने उस बालक का नामकरण इस प्रकार किया; यह वसु (कवच-कुण्डलादि धन) के साथ उत्पन्न हुआ है, इसलिये वसुषेण नाम से प्रसिद्ध हो। वह बलवान् बालक बड़े होने के साथ ही सब प्रकार की अस्त्रविद्या में निपुण हुआ। पराक्रमी कर्ण प्रात: काल से लेकर जब तक सूर्य पृष्ठभाग की ओर न चले जाते, सूर्योपस्थान करता रहता था। उस समय मन्त्र जप में लगे हुए बुद्धिमान् वीर कर्ण के लिये इस पृथ्वी पर कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जिसे वह ब्राह्मणों के मांगने पर न दे सके। किसी समय की बात है, सूर्यदेव ने ब्राह्मण का रुप धारण करके कर्ण को स्वप्न में दर्शन दिया और इस प्रकार कहा- ‘वीर ! मेरी बात सुनो- आज की रात बीत जाने पर सबेरा होते ही इन्द्र तुम्हारे पास आयेंगे। उस समय वे ब्राह्मण वेष में होंगे। यहां आकर इन्द्र यदि तुम से भिक्षा मांगे तो उन्हें देना मत। उन्होंने तुम्हारे कवच और कुण्डलों का अपहरण करने का निश्चय किया है। अत: मैं तुम्हें सचेत किये देता हूं। तुम मेरी यह बात याद रखना।’ कर्ण ने कहा- ब्रह्मन् ! इन्द्र यदि ब्राह्मण का रुप धारण करके सचमुच मुझसे याचना करेंगे, तो मैं आपकी चेतावनी के अनुसार कैसे उन्हें वह वस्तु नहीं दूंगा। ब्राह्मण तो सदा अपना प्रिय चाहने वाले देवताओं के लिये भी पूजनीय हैं। देवाधिदेव इन्द्र ही ब्राह्मण रुप में आये हैं, यह जान लेने पर भी मैं उनकी अवहेलना नहीं कर सकूंगा। सूर्य बोले- वीर ! यदि ऐसी बात है तो सुनो, बदले में इन्द्र भी तुम्हें वर देंगे। उस समय तुम उनसे सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का निराकरण करने वाली बरछी मांग लेना। वैशम्पायनजी कहते हैं- स्वप्न में यो कहकर ब्राह्मण-वेषधारी सूर्य वहीं अन्तर्धान हो गये। तब कर्ण जाग गया और स्वप्न की बातों का चिन्तन करने लगा।’ तत्पश्चात् एक दिन महातेजस्वी देवराज इन्द्र ब्राह्मण बनकर भिक्षा के लिये कर्ण के पास आये और उससे उन्होंने कवच और कुण्डलों को मांगा।
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