महाभारत आदि पर्व अध्याय 114 श्लोक 1-17
चतुर्दशाधिकशततम (114) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
धृतराष्ट्र के गान्धारी से एक सौ पुत्र तथा एक कन्या की तथा सेवा करने वाली वैश्यजातीय युवती से युयुत्सु नामक एक पुत्र की उत्पत्ति
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्तर धृतराष्ट्र के उनकी पत्नी गान्धारी के गर्भ से एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए। धृतराष्ट्र की एक दूसरी पत्नी वैश्यजाति की कन्या थी। उससे भी एक पुत्र का जन्म हुआ। यह पूर्वोक्त सौ पुत्रों से भिन्न था। पाण्डु के कुन्तीऔर माद्री के गर्भ से पांच महारथी पुत्र उत्पन्न हुए। वे सब कुरुकुल की संतान परम्परा की रक्षा के लिये देवताओं के अंश से प्रकट हुए थे। जनमेजय ने पूछा- द्विजश्रेष्ठ ! गान्धारी से सौ पुत्र किस प्रकारऔर कितने समय में उत्पन्न हुए? और उन सबकी पूरी आयु कितनी थी? वैश्यजातीय स्त्री के गर्भ से धृतराष्ट्र का वह एक पुत्र किस प्रकार उत्पन्न हुआ? राजा धृतराष्ट्र सदा अपने अनुकूल चलने वाली योगय पत्नी धर्मपरायणा गान्धारी के साथ कैसा बर्ताव करते थे? महात्मा मुनि द्वारा शाप को प्राप्त हुए राजा पाण्डु के वे पांचों महारथी पुत्र देवताओं के अंश से कैसे उत्पन्न हएु? विद्वान् तपोधन ! ये सब बातें यथोचित रुप से विस्तापूर्वक कहिये। अपने बन्धुजनों की यह चर्चा सुनकर मुझे तृप्ति नहीं होती। वैशम्पायनजी ने कहा- राजन् ! एक समय की बात है, महर्षि व्यास भूख और परिश्रम से खिन्न होकर धृतराष्ट्र के यहां आये। उस समय गान्धारी ने भोजन और विश्राम की व्यवस्था द्वारा उन्हें संतुष्ट किया। तब व्यासजी ने गान्धारी को वर देने की इच्छा प्रकट की। गान्धारी ने अपने पति के समान ही सौ पुत्र मांगे। तदनन्तर समयानुसार गान्धारी ने धृतराष्ट्र से गर्भ धारण किया। दो वर्ष व्यतीत हो गये, तब तक गान्धारी उस गर्भ को धारण किये रही। फिर भी प्रसव नहीं हुआ। इसी बीच में गान्धारी ने जब यह सुना कि कुन्ती के गर्भ से प्रात:कालीन सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ है, तब उसे बड़ा दु:ख हुआ। उसे अपने उदर की स्थिरता पर बड़ी चिन्ता हुई। गान्धारी दु:ख से मूर्छित हो रही थी। उसने धृतराष्ट्र की अनजान में ही महान् प्रयत्न करके अपने उदर पर आघात किया। तब उसके गर्भ से एक मांस का पिण्ड प्रकट हुआ, जो लोहे के पिण्ड के समान कड़ा था। उसने दो वर्ष तक उसे पेट में धारण किया था, तो भी उसने उसे इतना कड़ा देखकर फेंक देने का विचार किया। इधर यह बात महर्षि व्यास को मालूम हुई। तब वे बड़ी उतावली के साथ वहां आये। जप करने वालों में श्रेष्ठ व्यासजी ने उस मांसपिण्ड को देखा और गान्धारी से पूछा- ‘तुम इसका क्या करना चाहती थीं ? और उसने महर्षि को अपने मन की बात सच-सच बता दी। गान्धारी ने कहा- मुने ! मैंने सुना है, कुन्ती के एक ज्येष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ है, जो सूर्य के समान तेजस्वी है। यह समाचार सुनकर अत्यन्त दु:ख के कारण मैंने अपने उदर पर आघात करके गर्भ गिराया है। आपने पहले मुझे ही सौ पुत्र होने का वरदान दिया था; परंतु आज इतने दिनों बाद मेरे गर्भ से सौ पुत्रों की जगह यह मांसपिण्ड पैदा हुआ है। व्यासजी ने कहा- सुबलकुमारी ! यह सब मेरे वरदान के अनुसार ही हो रहा है; वह कभी अन्यथा नहीं हो सकता ।
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