महाभारत आदि पर्व अध्याय 115 श्लोक 1-18
पञ्चदशाधिकशततम (115) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
दु:शला के जन्म की कथा
जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन् ! महर्षि व्यास के प्रसाद से धृतराष्ट्र के सौ पुत्र हुए, यह बात आपने मुझे पहले ही बता दी थी। परंतु उस समय यह नहीं कहा था कि उन्हें एक कन्या भी हुई। अनघ ! इस समय आपने वैश्यापुत्र युयुत्सु तथा सौ पुत्रों के अतिरिक्त एक कन्या की भी चर्चा की है। अमित तेजस्वी महर्षि व्यास ने गान्धार राजकुमारी को सौ पुत्र होने का ही वरदान दिया था। भगवन् ! फिर आप मुझसे यह कैसे कहते हैं कि एक कन्या भी हुई। यदि महर्षि ने उक्त मांसपिण्ड के सौ भाग किये और यदि सुबल पुत्री गान्धारी ने किसी प्रकार फिर गर्भ धारण या प्रसव नहीं किया, तो उस दु:शला नाम वाली कन्या का जन्म किस प्रकार हुआ? ब्रह्मर्षे ! यह सब यथार्थरूप से मुझे बताइये। मुझे इस विषय में बड़ा कौतुहल हो रहा है। वैशम्पायनजी ने कहा- पाण्डवनन्दन ! तुमने यह बहुत अच्छा प्रश्न पूछा है। मैं तुम्हें इसका उत्तर देता हूं। महातपस्वी भगवान् व्यास ने स्वयं ही उस मांसपिण्ड को शीतल जल से सींचकर उसके सौ भाग किये। राजन् ! उस समय जो भाग जैसा बना, उसे धाय द्वारा वे एक-एक करके घी से भरे हुए कुण्डों में डलवाते गये। इसी बीच में पूर्णदृढता से सती व्रत का पालन करने वाली साध्वी एवं सुन्दरी गान्धारी कन्या के स्नेह-सम्बन्ध का विचार करके मन-ही-मन सोचने लगी- इसमें संदेह नहीं कि इस मांस पिण्ड से मेरे सौ पुत्र उत्पन्न होंगे; क्योंकि व्यास मुनि कभी झूठ नहीं बोलते; परंतु मुझे अधिक संतोष तो तब होता, यदि एक पुत्री भी हो जाती। यदि सौ पुत्रों के अतिरिक्त एक छोटी कन्या हो जायेगी तो मेरे पति दौहित्र के पुण्य से प्राप्त होने वाले उत्तम लोकों से भी वाञ्चित नहीं रहेंगे। कहते हैं, स्त्रियों का दामाद में पुत्र से भी अधिक स्नेह होता है। यदि मुझे भी सौ पुत्रों के अतिरिक्त एक पुत्री प्राप्त हो जाय तो मैं पुत्र और दौहित्र दोनों से घिरी रहकर कृतकृत्य हो जाऊं । यदि मैंने सचमुच तप, दान अथवा होम किया हो तथा गुरुजनों को सेवा द्वारा प्रसन्न कर लिया हो, तो मुझे भी पुत्री अवश्य प्राप्त हो। इसी बीच में मुनिश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने स्वयं ही उस मांस पिण्ड के विभाग कर दिये और पूरे सौ अंशों की गणना करके गान्धारी से कहा- व्यासजी बोले- गान्धारी ! मैंने झूठी बात नहीं कही थी; ये पूरे सौ पुत्र हैं। सौ के अतिरिक्त एक भाग और बचा है, जिससे दौहित्र का योग होगा। इस अंश से तुम्हें अपने मन के अनुरुप एक सौभाग्यशालिनि कन्या प्राप्त होगी। यों कहकर महातपस्वी व्यासजी ने घी से भरा हुआ एक और घड़ा मंगाया और उन तपोधन मुनि ने उस कन्याभाग को उसी में डाल दिया। भरतवंशी नरेश ! इस प्रकार मैंने तुम्हें दु:शला के जन्म का प्रसंग सुना दिया। अनघ ! बोलो, अब पुन: और क्या कहूं।
« पीछे | आगे » |