महाभारत आदि पर्व अध्याय 117 श्लोक 17-34
सप्तदशाधिकशततम (117) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
पाण्डु बोले- मृग ! राजा लोग नाना प्रकार के तीक्ष्ण उपायों द्वारा बल पूर्वक खुले-आम मृग का वध करते हैं; चाहे वह सावधान हो या असावधान। फिर तुम मेरी निन्दा क्यों करते हो? मृग ने कहा- राजन् ! मैं अपने मारे जाने के कारण इस बात के लिये तुम्हारी निन्दा नहीं करता कि तुम मृगों को मारते हो। मुझे तो इतना ही कहना है कि तुम्हें दयाभाव का आश्रय लेकर मेरे मैथुन कर्म से निवृत होने तक प्रतीक्षा करनी चाहिये थी। जो सम्पूर्ण भूतों के लिये हितकर और अभीष्ट है, उस समय में वन के भीतर मैथुन करने वाले किसी मृग को कौन विवेकशील पुरुष मार सकता है? राजेन्द्र ! मैं बड़े हर्ष और उल्लास के साथ अपने कामरुपी पुरुषार्थ को सफल करने के लिये इस मृगी के साथ मैथुन कर रहा था; किंतु तुमने उसे निष्फल कर दिया। महाराज ! क्लेशरहित कर्म करने वाले कुरुवंशियों के कुल में जन्म लेकर तुमने जो यह कर्म किया है, यह तुम्हारे अनुरूप नहीं है। भारत ! अत्यन्त कठोरतापूर्ण कर्म सम्पूर्ण लोकों में निन्दित हैं। वह स्वर्ग और यश को हानि पहुंचाने वाला है। इसके सिवा वह महान् पापकृत्य है। देवतुल्य महाराज ! तुम स्त्री-भोगों के विशेषज्ञ तथा शास्त्रीय धर्म एवं अर्थ के तत्व को जानने वाले हो। तुम्हें ऐसा नरकप्रद पाप कार्य नहीं करना चाहिये था। नृपशिरोमणे ! तुम्हारा कर्तव्यतो यह है कि धर्म, अर्थ और काम से हीन जो पापाचारी मनुष्य कठोरतापूर्ण कर्म करने वाले हों, उन्हें दण्ड दो। नरेश्रेष्ठ ! मैं तो फल-मूल का आहार करने वाला एक मुनि हूं और मृग का रुप धारण करके शम-दम के पालन में तत्पर हो सदा जंगल में ही निवास करता हूं। मुझ निरपराध को मारकर यहां तुमने क्या लाभ उठाया? तुमने मेरी हत्या की है, इसलिये बदले में मैं भी तुम्हें शाप देता हूं। तुमने मैथुन-धर्म में आसक्त दो स्त्री-पुरुषों का निष्ठुरतापूर्वक वध किया है। तुम अजितेन्द्रिय एवं काम से मोहित हो; अत: इसी प्रकार मैथुन में आसक्त होने पर जीवन का अन्त करने वाली मृत्यु निश्चय ही तुम पर आक्रमण करेगी। मेरा नाम किंदम है। मैं तपस्या से संलग्न रहने वाला मुनि हूं, अत: मनुष्यों में- मानव-शरीर से यह काम करने में मुझे लज्जा का अनुभव हो रहा था। इसीलिये मृग बनकर अपनी मृगी के साथ मैथुन कर रहा था। मैं प्राय: इसी रुप में मृगों के साथ घने वन में विचरता रहता हूं। तुम्हें मुझे मारने से ब्रह्महत्या तो नहीं लगेगी; क्योंकि तुम यह बात नहीं जानते थे (कि यह मुनि है )। परंतु जब मैं मृगरुप धारण करके काम से माहित था, उस अवस्था में तुमने अत्यन्त क्रूरता के साथ मुझे मारा है; अत: मूढ़ ! तुम्हें अपने इस कर्म का ऐसा ही फल अवश्य मिलेगा। तुम भी जब काम से सर्वथा मोहित होकर अपनी प्यारी पत्नी के साथ समागम करने लगोगे, तब इस- मेरी अवस्था में ही यम लोक सिधारोगे। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ महाराज ! अन्तकाल आने पर तुम जिस प्यारी पत्नी के साथ समागम करोगे, वही समस्त प्राणियों के लिये दुर्गम यमलोक में जाने पर भक्तिभाव से तुम्हारा अनुसरण करेगी। मैं सुख में मग्न था, तथापि तुमने जिस प्रकार मुझे दु:ख में डाल दिया, उसी प्रकार तुम भी जब प्रेयसी पत्नी के संयोग-सुख का अनुभव करोगे, उसी समय तुम्हारे ऊपर दु:ख टूट पड़ेगा। वैशम्पायनजी कहते हैं- यों कहकर वे मृगरूप धारी मुनि अत्यन्त दु:ख से पीड़ित हो गये और उनका देहान्त हो गया तथा राजा पाण्डु भी क्षणभर में दु:ख से आतुर हो उठे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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