महाभारत आदि पर्व अध्याय 119 श्लोक 1-16
एकोनविंशत्यधिकशततम (119) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने का आदेश
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! वहां भी श्रेष्ठ तपस्या में लगे हुए पराक्रमी राजा पाण्डु सिद्ध और चारणों के समुदाय को अत्यन्त प्रिय लगने लगे- इन्हें देखते ही वे प्रसन्न हो जाते थे। भारत ! वे ॠषि-मुनियों की सेवा करते, अहंकार से दूर रहते और मन को वश में रखते थे। उन्होंने सम्पूर्ण इन्द्रियों को जीत लिया था। वे अपनी ही शक्ति से स्वर्गलोक में जाने के लिये सदा सचेष्ट रहने लगे। कितने ही ॠषियों का उन पर भाई के समान प्रेम था। कितनों के वे मित्र हो गये थे और दूसरे बहुत-से महर्षि उन्हें अपने पुत्र के समान मानकर सदा उनकी रक्षा करते थे। भरतश्रेष्ठ जनमेजय ! राजा पाण्डु दीर्घकाल तक पापरहित तपस्या का अनुष्ठान करके ब्रह्मर्षियों के समान प्रभावशाली हो गये थे। एक दिन अमावस्या तिथि को कठोर व्रत का पालन करने वाले बहुत-से ॠषि-महर्षि एकत्र हो ब्रह्माजी के दर्शन की इच्छा से ब्रह्मलोक के लिये प्रस्थित हुए। ॠर्षियों को प्रस्थान करते देख पाण्डु ने उनसे पूछा- ‘वक्ताओं में श्रेष्ठ मुनीश्वरो ! आप लोग कहां जायेंगे? यह मुझे बताइये’। ॠषि बोले- राजन् ! आज ब्रह्मलोक मे महात्मा देवताओं, ॠषि-मुनियों तथा महामना पितरों का बहुत बड़ा समुह एकत्र होने वाला है। अत: हम वहीं स्वयम्भू ब्रह्माजी का दर्शन करने के लिये जायेंगे। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर महाराज पाण्डु भी महर्षियों के साथ जाने के लिये सहसा उठ खडे हुए। उनके मन में स्वर्ग के पार जाने की इच्छा जाग उठी और वे उत्तर की ओर मुंह करके अपनी दोनों पत्नियों के साथ शतश्रंग पर्वत से चल दिये। यह देख गिरिराज हिमालय के ऊपर-ऊपर उत्तराभिमुख यात्रा करने वाले तपस्वी मुनियों ने कहा- ‘भरतश्रेष्ठ ! इस रमणीय पर्वत पर हमने बहुत-से ऐसे प्रदेश देखे है,जहां जाना बहुत कठिन है। वहां देवताओं, गन्धर्वों तथा अप्सराओं की क्रीडा भूमि है, जहां सैंकड़ों विमान खचाखच भरे रहते हैं और मधुर गीतों के स्वर गूंजते रहते हैं। इसी पर्वत पर कुबेर के अनेक उधान हैं, जहां की भूमि कहीं समतल है और कहीं नीची-ऊंची। ‘इस मार्ग में हमने कई बड़ी-बड़ी नदियों के दुर्गम तट और कितनी ही पर्वतीय घाटियां देखी हैं। यहां बहुत-से ऐसे स्थल हैं, जहां सदा बर्फ जमी रहती है तथा जहां वृक्ष, पशु और पक्षियों का नाम भी नहीं है। ‘कहीं-कहीं बहुत गुफाएं हैं, जिनमें प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है। कइयों के तो निकट भी पहुंचना कठिन है। ऐसे स्थलों को पक्षी भी नहीं पार कर सकता, फिर मृग आदि अन्य जीवों की बात ही क्या है? ‘इसी मार्ग पर केवल वायु चल सकती है तथा सिद्ध महर्षि भी जा सकते हैं। इस पर्वतराज पर चलती हुई ये दोनों राजकुमारियां कैसे कष्ट न पायेंगी? भरतवंश शिरोमणे ! ये दोनों रानियां दु:ख सहन करने के योग्य नहीं हैं; अत: आप न चलिये’। पाण्डु ने कहा-महाभाग महर्षिगण ! संतानहीन के लिये स्वर्ग का दरवाजा बंद रहता है, ऐसा लोग कहते हैं। मैं भी संतानहीन हूं, इसलिये दु:ख से संतप्त होकर आप लोगों से कुछ निवेदन करता हूं। तपोधनो ! मैं पितरों के ॠण से अब तक छूट नहीं सका हूं, इसलिये चिन्ता से संतप्त हो रहा हूं।
« पीछे | आगे » |