महाभारत आदि पर्व अध्याय 129 श्लोक 21-40
>एकोनत्रिंशदधिकशततम (128 ) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
और वहां गुप्त रूप से आकर अपने पुत्र को गोत्र आदि सब बातों का पूरा परिचय दे दिया। चार प्रकार के धनुर्वेद, नाना प्रकार के उपदेश तथा उन सबके गूढ़ रहस्य का भी पूर्ण रुप से उसको उपदेश दिया। इससे कृप थोड़े ही समय में धनुर्वेद के उत्कृष्ट आचार्य हो गये धृतराष्ट्र के महारथी पुत्र,पाण्डव देशों से आये हुए अन्य नरेश भी उनसे धनुर्वेद की शिक्षा लेते थे । वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! कृपाचार्य के द्वारा पूर्णत: शिक्षा मिल जाने पर पितामह भीष्म ने अपने पौत्रों में विशिष्ट योग्यता लाने के लिये उन्हें और अधिक शिक्षा देने की इच्छा से ऐसे आचार्यों की खोज प्रारम्भ की, जो बाण-संचालन की कला में निपुण और अपने पराक्रम के लिये सम्मानित हों। उन्होंने सोचा- ‘जिसकी बुद्धि थोड़ी है, जो महान् भाग्यशाली नहीं है,जिसने नाना प्रकार की अस्त्र-विद्या में निपुणता नहीं प्राप्त की है तथा जो देवताओं के समान शक्तिशाली नहीं है, वह इन महाबली कौरवों को अस्त्रविद्या की शिक्षा नहीं दे सकता।‘ नरश्रेष्ठ ! यों विचार कर भरतश्रेष्ठ गंगा नन्दन भीष्म ने भरद्वाज वंशी, वेदवेत्ता तथा बुद्धिमान् द्रोण को आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित करके उनको शिष्य रूप में पाण्डवों तथा कौरवों को समर्पित कर दिया । अस्त्रविद्या के विद्वानों में श्रेष्ठ महाभाग द्रोण महात्मा भीष्म के द्वारा शास्त्रविधि से भलीभांति पूजित होने पर बहुत संतुष्ट हुए । फिर उन महा यशस्वी आचार्य द्रोण ने उन सबको शिष्य रुप में स्वीकार किया और सम्पूर्ण धनुर्वेद की शिक्षा दी । राजन् ! अमित तेजस्वी पाण्डव तथा कौरव-सभी थोड़े ही समय में सम्पूर्ण शस्त्रविद्या में परम प्रवीण हो गये । जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन् ! द्रोणाचार्य की उत्पत्ति कैसे हुई? उन्होंने किस प्रकार अस्त्र-विद्या प्राप्त की? वे कुरुदेश में कैसे आये? तथा वे महापराक्रमी द्रोण किसके पुत्र थे? साथ ही अस्त्र-शस्त्र के विद्वानों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा, जो द्रोण का पुत्र था, कैसे उत्पन्न हुआ? यह सब मैं सुनना चाहता हूं। आप विस्तारपूर्वक कहिये । वैशम्पायनजी ने कहा- जनमेजय ! गंगाद्वार में भगवान् भरद्वाज नाम से प्रसिद्ध एक महर्षि रहते थे। वे सदा अत्यन्त कठोर व्रतों का पालन करते थे। एक दिन उन्हें एक विशेष प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान करना था। इसलिये वे भरद्वाज मुनि महर्षियों को साथ लेकर गंगाजी में स्नान करने के लिये गये। वहां पहुचकर महर्षि ने प्रत्यक्ष देखा, घृताची अप्सरा पहले से ही स्नान करके नदी के तट पर खड़ी हो वस्त्र बदल रही है। वह रूप और यौवन से सम्पन्न थी। जवानी के नशे में मद से उन्मत्त हुई जान पड़ती थी। उसका वस्त्र खिसक गया और उसे उस अवस्था में देखकर ॠषि के मन में कामवासना जाग उठी । परम बुद्धिमान् भरद्वाजजी का मन अप्सरा में आसक्त हुआ; इससे उनका वीर्य स्खलित हो गया। ॠषि ने उस वीर्य को द्रोण (यज्ञ कलश) में रख दिया । तब उन बुद्धिमान् महर्षि को उस कलश से जो पुत्र उत्पन्न हुआ, वह द्रोण से जन्म लेने के कारण द्रोण नाम से विख्यात हुआ। उसने सम्पूर्ण वेदों और वेदांगों का अध्ययन किया । प्रतापी महर्षि भरद्वाज अस्त्र वेत्ताओं में श्रेष्ठ थे। उन्होंने महाभाग अग्निवेश को अस्त्र की शिक्षा दी थी । जनमेजय ! अग्निवेश मुनि साक्षात् अग्नि के पुत्र थे। उन्होंने अपने गुरू पुत्र भरद्वाज नन्दन द्रोण को उस आग्नेय नामक महान् अस्त्रक की शिक्षा दी ।
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