महाभारत आदि पर्व अध्याय 130 श्लोक 1-17

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त्रिंशदधिकशततम (130) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: > त्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

द्रोण का द्रुपद से तिरस्‍कृत हो हस्तिनापुर में आना, राजकुमारों से उनकी भेंट, उनकी बीटा और अंगूठी को कुऐं में से निकालना एवं भीष्‍म का उन्‍हें अपने यहां सम्‍मान पूर्वक रखना वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! प्रतापी द्रोण राजा द्रुपद के यहां आकर उनसे इस प्रकार बोले- ‘राजन् ! तुम्‍हें ज्ञात होना चाहिये कि मैं तुम्‍हारा मित्र द्रोण यहां तुमसे मिलने के लिये आया हूं’ । मित्र द्रोण के द्वारा इस प्रकार प्रेम पूर्वक कहे जाने पर पाञ्चालदेश के नरेश उनकी इस बात को सह न सके । क्रोध और अमर्ष से उनकी भौहें टेढ़ी हो गयीं, आंखों में लाली छा गयी; धन और एश्वर्य के मद से उन्‍मत्त होकर वे राजा द्रोण से यों बोले । द्रुपद ने कहा- ब्रह्मन् ! तुम्‍हारी बुद्धि सवर्था संस्‍कार शून्‍य-अपरिपक्क है। तुम्‍हारी यह बुद्धि यथार्थ नहीं है। तभी तो तुम धृष्टता पूर्वक मुझसे कह रहे हो कि ‘राजन् ! मैं तुम्‍हारा सखा हूं’ । ओ मूढ़ ! बड़े-बड़े राजाओं की तुम्‍हारे-जैसे श्रीहीन और निर्धन मनुष्‍यों के साथ कभी मित्रता नहीं होती । समय के अनुसार मनुष्‍य ज्‍यों-ज्‍यों बूढ़ा होता है, त्‍यों-ही-त्‍यों उसकी मैत्री भी क्षीण होती चली जाती है। पहले तुम्‍हारे साथ जो मेरी मित्रता थी, वह सामर्थ्‍य को लेकर थी- उस समय मैं और तुम दोनों समान शक्तिशाली थे । लोक में किसी भी मनुष्‍य के हृदय में मैत्री अमिट होकर नहीं रहती समय एक मित्र को दूसरे से विलग कर देता है अथवा क्रोध मनुष्‍य मित्रता से हटा देता है । इस प्रकार क्षीण होने वाली मैत्री का भरोसा न करो। हम दोनों एक दूसरे के मित्र थे- इस भाव को हृदय से निकाल दो। द्विजश्रेष्ठ ! तुम्‍हारे साथ पहले जो मेरी मित्रता थी, वह साथ-साथ खेलने और अध्‍ययन आदि स्‍वार्थ को लेकर हुई थी । सच्ची बात यह है कि दरिद्र मनुष्‍य धनवान् का, मूर्ख विद्वान् का और कायर शूरवीर का सखा नहीं हो सकता; अत: पहले की मित्रता का क्‍या भरोसा करते हो । जिनका धन समान है, जिनकी विद्या एक-सी है, उन्‍हीं में विवाह और मैत्री का सम्‍बन्‍ध हो सकता है। हुष्ट-पुष्ट और दुर्बल में (धनवान् और निर्धन में) कभी मित्रता नहीं हो सकती । जो श्रोत्रिय नहीं है,वह श्रोत्रिय (वेदवेत्ता) का मित्र नहीं हो सकता। जो रथी नहीं है वह रथी का सखा नहीं हो सकता। इस प्रकार जो राजा नहीं है, वह किसी राजा का ‍मित्र कदापि नहीं हो सकता। फिर तुम पुरानी मित्रता का क्‍यों स्‍मरण करते हो? । वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! राजा द्रुपद के यों कहने पर प्रतापी द्रोण क्रोध से जल उठे और दो घड़ी तक गहरी चिन्‍ता में डूबे रहे। वे बुद्धिमान् तो थे ही, पाञ्चाल नरेश से बदला लेने के विषय में मन-ही-मन कुछ निश्चय करके कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर नगर में चले गये । हस्तिनापुर में पहुंचकर द्विजश्रेष्ठ द्रोण गौतम गोत्रीय कृपाचार्य के घर में गुप्त रूप से निवास करने लगे । वहां उनके पुत्र शक्तिशाली अश्वत्‍थामा कृपाचार्य के बाद पाण्‍डवों को स्‍वयं ही अस्त्रविद्या की शिक्षा देने लगे; किन्‍तु लोग उन्‍हें पहचान न सके । इस प्रकार द्रोण ने वहां अपने आपको छिपाये रखकर कुछ काल तक निवास किया। तदनन्‍तर एक दिन कौरव-पाण्‍डव सभी वीर कुमार हस्तिनापुर से बाहर निकलकर बड़ी प्रसन्नता के साथ बहां गुल्‍ली–डंडा खेलने लगे ।उस समय खेल में लगे हुए उन कुमारों की वह बीटा कुऐं में गिर पड़ी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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