महाभारत आदि पर्व अध्याय 132 श्लोक 1-18

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द्वात्रिंशदधिकशततम (132) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: > द्वात्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन के द्वारा लक्ष्‍यवेध, द्रोण का ग्राह से छुटकारा और अर्जुन को ब्रह्मशिर नामक अस्त्र की प्राप्ति वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्‍तर द्रोणाचार्य ने अर्जुन से मुस्‍कराते हुए कहा- ‘अब तुम्‍हें इस लक्ष्‍य का वेध करना है। इसे अच्‍छी तरह देख लो । ‘मेरी आज्ञा मिलने के साथ ही तुम्‍हें इस पर बाण छोड़ना होगा। बेटा ! धनुष तानकर खड़े हो जाओ और दो घड़ी मेरे आदेश की प्रतीक्षा करो’ । उनके ऐसा कहने पर अर्जुन ने धनुष को इस प्रकार खींचा कि वह मण्‍डलाकार (गोल) प्रतीत होने लगा। फि‍र वे गुरु की आज्ञा से प्रेरित हो गीध की ओर लक्ष्‍य करके खड़े हो गये । मानो दो घड़ी बाद द्रोणाचार्य ने उनसे भी उसी प्रकार प्रश्न किया- ‘अर्जुन ! क्‍या तुम उस वृक्ष पर बैठे हुए गीध को, वृक्ष को और मुझे भी देखते हो?’ । जनमेजय ! यह पश्न सुनकर अर्जुन ने द्रोणाचार्य से कहा- ‘मैं केवल गीध को देखता हूं। वृक्ष को अथवा आपको नहीं देखता’ । इस उत्तर से द्रोण का मन प्रसन्न हो गया। मानो दो घड़ी बाद दुधर्ष द्रोणाचार्य ने पाण्‍डव - महारथी अर्जुन से फि‍र पूछा - । ‘वत्‍स ! यदि तुम इस गीध को देखते हो तो फि‍र बताओ, उसके अंग कैसे हैं?’ अर्जुन बोले- ‘मैं गीध का मस्‍तक भर देख रहा हूं, उसके सम्‍पूर्ण शरीर को नहीं’ । अर्जुन के यों कहने पर द्रोणाचार्य के शरीर में (हर्षातिरेक से) रोमाञ्च हो गया और वे अर्जुन से बोले, ‘चलाओ बाण’ ! अर्जुन ने बिना सोचे-विचारे बांण छोड़ दिया । फि‍र तो पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन ने अपने चलाये हुए तीखे क्षुर नामक बाण से वृक्ष पर बैठे हुए उस गीध का मस्‍तक वेग पूर्वक काट गिराया । इस कार्य में सफलता प्राप्त होने पर आचार्य ने अर्जुन को हृदय से लगा लिया और उन्‍हें यह विश्‍वास हो गया कि राजा द्रुपद युद्ध में अर्जुन द्वारा अपने भाई-बन्‍धुओं सहित अवश्‍य पराजित हो जायंगे । भरत श्रेष्ठ तदनन्‍तर किसी समय अंगिरा वंशियों में उत्तम आचार्य द्रोण अपने शिष्‍यों के साथ गंगाजी में स्‍नान करने के लिये गये । वहां जल में गोता लगाते समय काल से प्रेरित हो एक बलवान् जलजन्‍तु ग्राह ने द्रोणाचार्य की पिंडली पकड़ ली । वे अपने को छुड़ाने के समर्थ होते हुए भी मानो हड़बड़ाये हुए अपने सभी शिष्‍यों से बोले- ‘इस ग्राह को मारकर मुझे बचाओ’ । उनके इस आदेश के साथ ही बीभत्‍सु (अर्जुन) ने पांच अमोघ एवं तीखे बाणों द्वारा पानी में डूबे हुए उस ग्राह पर प्रहार किया । परंतु दूसरे राजकुमार हक्‍के-बक्‍के–से होकर अपने-अपने स्‍थान पर खड़े रह गये। अर्जुन को तत्‍काल कार्य में तत्‍पर देख द्रोणाचार्य ने उन्‍हें अपने सब शिष्‍यों से बढ़कर माना और उस समय वे उन पर बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन के बाणों से ग्राह के टुकड़े-टुकड़े हो गये और वह महात्‍मा द्रोण की पिंडली छोड़कर मर गया। तब द्रोणाचार्य ने महारथी महात्‍मा अर्जुन से कहा- । ‘महाबाहो ! यह ब्रह्मशिर नामक अस्त्र मैं तुम्‍हे प्रयोग और उपहसंहार के साथ बता रहा हूं। यह सब अस्त्रों से बढ़कर है तथा इसे धारण करना भी अत्‍यन्‍त कठिन है। तुम इसे ग्रहण करो ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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