महाभारत आदि पर्व अध्याय 137 श्लोक 55-77

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सप्तत्रिंशदधिकशततम (137) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: >सप्तत्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 55-77 का हिन्दी अनुवाद

उन्‍होंने पञ्चालराज का धनुष काटकर उनकी ध्‍वजा को भी धरती पर काट गिराया। फि‍र पांच बाणों से उनके घोड़ों और सारथि को घायल कर दिया । तत्‍पश्चात् उस कटे हुए धनुष को त्‍यागकर जब वे दूसरा धनुष और तूणीर लेने लगे, उस समय अर्जुन ने म्‍यान से तलवान निकालकर सिंह के समान गर्जना की । और सहसा पञ्चाल नरेश के रथ के डंडे पर कूद पड़े। इस प्रकार द्रुपद के रथ पर चढ़कर निर्भीक अर्जुन जैसे गुरुड़ समुद्रको क्षुब्‍ध करके सर को पकड़ लेता है, उसी प्रकार उन्‍हें अपने काबू में कर लिया। तब समस्‍त पाञ्चाल सैनिक (भयभीत हो) दसों दिशाओं में भागने लगे । समस्‍त सैनिकों को अपना बाहुबल दिखाते हुए अर्जुन सिंहनाद करके वहां से लौटे । अर्जुन को आते देख समस्‍त राजकुमार एकत्र हो महात्‍मा द्रुपद के नगर का विध्‍वंस करने लगे । तब अर्जुन ने कहा-भैया भीमसेन ! राजाओं में श्रेष्ठ द्रुपद कौरव वीरों के सम्‍बन्‍धी हैं, अत: इनकी सेना का संहार न करो; केवल गुरुदक्षिणा के रूप में द्रोण के प्रति महाराज द्रुपद को ही दे दो । वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! उस समय अर्जुन के मना करने पर महाबली भीमसेन युद्धधर्म से तृप्त नहोने पर भी उससे निवृत्त हो गये । भरतश्रेष्ठ जनमेजय ! उन पाण्‍डव ने यज्ञसेन द्रुपद को मन्त्रियों सहित संग्राम भूमि में बंदी बनाकर द्रोणाचार्य को उपहार के रूप में दे दिया । उनका अभिमान चूर्ण हो गया था, धन छीन लिया गया था और वे पूर्णरूप से वश में आ चुके थे; उस समय द्रोणाचार्य ने मन-ही-मन पिछले वैर का स्‍मरण करके राजा द्रुपद से कहा- । ‘राजन् ! मैंने बल पूर्वक तुम्‍हारे राष्ट्र को रौंद डाला। तुम्‍हारी राजधानी मिट्टी में मिला दी। अब तुम शत्रु के वश में पड़े हुए जीवन को लेकर यहां आये हो। बोलो, अब पुरानी मित्रता चाहते हो क्‍या? । यों कहकर द्रोणाचार्य कुछ हंसे। उसके बाद फि‍रउनके इस प्रकार बोले- ‘वीर ! प्राणों पर संकट आया जानकर भयभीत न होओ। हम क्षमाशील ब्राह्मण हैं । ‘क्षत्रिय शिरोमणे ! तुम बचपन में मेरे साथ आश्रम में जो खेले-कूदे हो, उससे तुम्‍हारे ऊपर मेरा स्‍नेह एवं प्रेम बहुत बढ़ गया है । ‘नरेश्वर ! मैं पुन: तुमसे मैत्री के लिये प्रार्थना करता हूं। राजन् ! मैं तुम्‍हें वर देता हूं, तुम इस राज्‍य का आधा भाग मुझसे ले लो । ‘यज्ञसेन ! तुमने कहा था- जो राजा नहीं, वह राजा का मित्र नहीं हो सकता; इसलिये मैंने तुम्‍हारा राज्‍य लेने का प्रयत्न किया है। ‘गंगा के दक्षिण प्रदेश के तुम राजा हो और उत्तर के भू-भाग का राजा मैं हूं। पाञ्चाल ! अब यदि उचित समझो तो मुझे अपना मित्र मानो’ । द्रुपद ने कहा- ब्रह्मन् ! आप जैसे पराक्रमी महात्‍माओं में ऐसी उदारता का होना आश्चर्य की बात नहीं है। मैं आपसे बहुत प्रसन्न हूं और आपके साथ सदा रहने वाली मैत्री एवं प्रेम चाहता हूं । वैशम्‍पायनजी कहते हैं- भारत ! द्रुपद के यों कहने पर द्रोणाचार्य ने उन्‍हें छोड़ दिया और प्रसन्नचित्त हो उनका आदर-सत्‍कार करके उन्‍हें आधा राज्‍य दे दिया । तदनन्‍तर राजा द्रुपद दीनतापूर्वक हृदय से गंगा तटवर्ती अनेक जनपदों से युक्‍त माकन्‍दीपुरी में तथा नगरों में श्रेष्ठ काम्पिल्‍य नगर में निवास एवं चर्मण्‍वती नदी के दक्षिण तटवर्ती पाञ्चाल देश का शासन करने लगे। इस प्रकार द्रोणाचार्य ने द्रुपद को परास्‍त करके पुन: उनकी रक्षा की । द्रुपद को अपने क्षात्रबल के द्वारा द्रोणाचार्य की पराजय होती नहीं दिखाई दी। वे अपने को ब्राह्मण बल से हीन जानकर (द्रोणाचार्य को पराजित करने लिये) शक्तिशाली पुत्र प्राप्त करने की इच्‍छा से पृथ्‍वी पर विचरने लगे। इधर द्रोणाचार्य ने (उत्तर-पञ्चालवर्ती) अहिच्‍छत्र नामक राज्‍य को अपने अधिकार में कर लिया । राजन् ! इस प्रकार अनेक जनपदों से सम्‍पन्न अहिच्‍छत्रा नाम वाली नगरी को युद्ध में जीतकर अर्जुन ने द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा में दे दिया ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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