महाभारत आदि पर्व अध्याय 139 श्लोक 85-91
एकोनचत्वारिंशदधिकशततम (139) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले राजा को देश और काल का विभाग करके ही यत्नपूर्वक उत्साह एवं उद्यम करना चाहिये। इसी प्रकार देश-काल के विभाग पूर्वक ही प्रारब्ध कर्म तथा धर्म, अर्थ और काम का सेवन करना चाहिये। देश और काल को ही मंगल के प्रधान हेतु समझना चाहिये। यही नीतिशास्त्र का सिद्वान्त है । छोटे शत्रु की भी उपेक्षा कर दी जाये, तो वह ताड़ वृक्ष की भांति जड़ जमा लेता है और घने वन में छोड़े हुए आग की भांति शीघ्र ही महान् विनाश कारी बन जाता है । जो मनुष्य थोड़ी-सी अग्नि के भांति अपने आपको (सहायक सामग्रियों द्वारा धीरे-धीरे) प्रज्जलित या समृद्ध करता रहता है, वह एक दिन बहुत बड़ा होकर शत्रु रूपी ईधन की बहुत बड़ी राशि को भी अपना ग्रास बना लेता है । यदि किसी को किसी बात की आशा दे तो उसे शीघ्र पूरी न करके दीघ्रकाल तक लटकाये रक्खे। जब उसे पूर्ण करने का समय आये, तब उसमें कोई विघ्न डाल दें और इस प्रकार समय की अवधि को बढ़ा दे। उस विघ्न के पड़ने में कोई उपयुक्त कारण बता दे और उस कारण को भी युक्तियों से सिद्ध कर दे । लोहे का बना हुआ छूरा शान पर चढ़ाकर तेज किया जाता और चमड़े संपुट में छिपाकर रक्खा जाता है तो वह समय आने पर (सिर आदि अंगों के समस्त) बालों को काट देता है। उसी प्रकार राजा अनुकूल अवसर की अपेक्षा रखकर अपने मनोभाव को छिपाये हुए अनुकूल साधनों का संग्रह करता रहे और छुरे की तरह तीक्ष्ण या निर्दय होकर शत्रुओं के प्राण ले ले- उनका मूलोच्छेद कर डाले । कुरूश्रेष्ठ ! आप भी इस नीति का अनुसरण करके पाण्डवों तथा दूसरे लोगों के साथ यथोचित बर्ताव करते रहें। परंतु ऐसा कार्य करें जिससे स्वयं संकट के समुद्र में डूब न जायें। आप समस्त कल्याणकारी साधनों से सम्पन्न और सबसे श्रेष्ठ हैं, यही सबका निश्चय है; अत: नरेश्वर ! आप पाण्डु के पुत्रों से अपनी रक्षा कीजिये । राजन् ! आपके भतीजे बलवान् हैं; अत: ऐसी नीति काम में लाइये, जिससे आगे चलकर आपको पछताना न पड़े । वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर कणिक अपने घर को चले गये। इधर कुरुवंशी धृतराष्ट्र शोक से व्याकुल हो गये ।
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