महाभारत आदि पर्व अध्याय 150 श्लोक 34-45
पञ्चाशदधिकशततम (150) अध्याय: आदि पर्व (जतुगृह पर्व)
‘जिनके बहुत से शूरवीर भाई-बन्धु धर्मपरायण होते हैं, वे भी संसार में नीरोग रहते और सुख से जीते हैं। ‘जो बलवान् , धनसम्पन्न तथा मित्रों और भाई-बन्धुवों को आनन्दित करनेवाले हैं, वे जंगल के वृक्ष की भांति एक-दूसरे के सहारे जीवन धारण करते हैं। ‘दुरात्मा धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों ने तो हमें घर से निकाल दिया और जलाने की सी चेष्टा की, परंतु किसी तरह भाग्य भरोसे हम बच गये हैं। ‘आज उस अग्निदाह से मुक्त हो हम इस वृक्ष के नीचे आश्रय ले रहे हैं। हमें किन दिशा में जाना है, इसका भी पता नहीं है। हम भारी-से-भारी कष्ट उठा रहे हैं । ‘जो दुबुद्धि अल्पदर्शी धृतराष्ट्र दुर्योधन ! आज तेरी कामना पूरी हूई। निश्चय ही देवता मुझ पर प्रसन्न हैं। तभी तो राजा युधिष्ठिर मुझे तेरा वध करने की आज्ञा नहीं दे रहे हैं। दुर्भते ! यही कारण है कि तू अब तक जी रहा है। रे पापाचारी ! मैं आज ही जाकर कूपित हो मन्त्रियों, कर्ण, छोटे भाई और शकुनिसहित तुझे यमलोक भेज सकता हूं। किंतु क्या करुं? पाण्डव श्रेष्ठ धर्मात्मा युधिष्ठिर तुझ पर क्रोध नहीं कर रहे हैं’। यो कहकर महाबाहु भीम मन ही मन क्रोध से जलते और हाथ से हाथ मलते हुए दीनभाव से लंबी सांसें खीचनें लगे। बुझी हुई लपटोंवाली अग्नि के भांति दीनहदय होकर वह पुन: धरती पर सोये हुए भाइयों की ओर देखने लगे। उनके वे सभी भाई साधारण लोगों की भांति भूमि पर ही निश्चितापूर्वक सो रहे थे। उस समय भीम इस प्रकार विचार करने लगे- ‘अहो ! इस वन में थोड़ी ही दूरी पर कोई नगर दिखायी देता है। जब कि जागना चाहिये, ऐसे समय भी ये मेरे भाई सो रहे है। अच्छा, मैं स्वयं ही जागरण करुं। थकावट दूर होने पर जब वे नींद से उठेगे, तभी पानी पीयेंगे ।‘ऐसा निश्चय करके भीमसेन स्वयं ही उस समय जागरण करने लगे।
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