महाभारत आदि पर्व अध्याय 154 श्लोक 17-19
चतुष्पञ्चादशधिकशततम (154) अध्याय: आदि पर्व (हिडिम्बवध पर्व)
भद्रे ! जब भीमसेन स्नान, नित्यकर्म और मांगलिक वेशभूषा आदि धारण कर लें, तब तुम प्रतिदिन उनके साथ रहकर सूर्यास्त होने से पहले तक ही उनकी सेवा कर सकती हो। तुम मन के समान वेग से चलने-फिरने वाली हों, अत: दिन-भर तो तुम इनके साथ अपनी इच्छा के अनुसार विहार करो, परंतु रात को सदा ही तुम्हें भीमसेन को (हमारे पास) पहुंचा देना होगा । संध्याकाल आने से पहले ही इन्हें छोड़ देना होगा और नित्य–निरन्तर इनकी रक्षा करनी होगी। इस शर्त पर तुम भीमसेन के साथ सुखपूर्वक तब तक रहो, जब तक कि तुम्हें यह पता न चल जाय कि तुम्हारे गर्भ में बालक आ गया है। भद्रे ! यही तुम्हारे लिये पालन करने योग्य नियम है। तुम्हें सावधान होकर भीमसेन की सेवा करनी चाहिये और नित्य उनके अनुकूल होकर सदा उनकी भलाई में संलग्न रहना चाहिये।। युधिष्ठिर के यों कहने पर कुन्ती ने हिडिम्बा को अपने ह्रदय से लगा लिया। तदनन्तर युधिष्ठिर से कुछ दूरी पर रहकर भीम के साथ चल पड़ी। वह चलते समय भीम और अर्जुन के बीच में रहती थी। नकुल और सहदेव सदा उसे आगे करके चलते थे। (इस प्रकार) वे (सब) लोग जल पीने की इच्छा से शालिहोत्र मुनि के रमणीय सरोवर के तट पर जा पहुंचे। वहां कुन्ती तथा युधिष्ठिर ने पहले जो शर्त रक्खी थीं, उसे स्वीकार करके हिडिम्बा राक्षसी ने वैसा ही कार्य करने की प्रतिज्ञा की। तत्पश्चात् उसने वृक्ष के नीचे झाडू लगायी और पाण्डवों के लिये निवास स्थान का निर्माण किया। उन सबके लिये पर्णशाला तैयार करने के बाद उसने अपने और कुन्ती के लिये एक दूसरी जगह कुटी बनायी। तदनन्तर पाण्डवों ने स्नान करके शुद्ध हो संध्योपासना किया और भूख-प्यास से पीड़ित होने पर भी केवल जल का आहार किया। उस समय शालिहोत्र मुनि ने उन्हें भूख से व्याकुल जान मन-ही-मन उनके लिये प्रचुर अन्न-पान की सामग्री का चिन्तन किया (और उससे पाण्डवों को भोजन कराया)। तदनन्तर कुन्ती देवी सहित सब पाण्डव विश्राम करने लगे। विश्राम के समय उनमें नाना प्रकार की बातें होने लगी-किस प्रकार लाक्षागृह में उन्हें जलाने का प्रयत्न किया गया तथा फिर राक्षस हिडिम्ब ने उन लोगों पर किस प्रकार आक्रमण किया इत्यादि प्रसंग उनकी चर्चा के विषय थे। बातचीत समाप्त होने पर कुन्तिराजकुमारी कुन्ती ने पाण्डुनन्दन भीम से इस प्रकार कहा।। कुन्ती बोली- युवराज ! तुम्हारे लिये जैसे महाराज पाण्डु माननीय थे, वैसे ही बड़े भाई युधिष्ठिर भी हैं, धर्मशास्त्र की दृष्टि से मैं उनकी अपेक्षा भी अधिक गौरव की पात्र और सम्मानीय हूं। अत: तुम महाराज पाण्डु के हित के लिये एक हितकर आज्ञा का पालन करो। वृकोदर ! अपवित्र बुद्धिवाले पापात्मा दुर्योधन ने हमारे साथ जो दुष्टता की है, उसके प्रतिशोध का उपाय मुझे कोई नहीं दिखायी देता। अत: कुछ दिनों के बाद भले ही हमारा योगक्षेम सिद्ध हो। यह निवास स्थान अत्यन्त दुर्गम होने के कारण हमारे लिये कल्याणकारी सिद्ध होगा। हम यहां सुखपूर्वक रहेंगे। महाप्राज्ञ भीमसेन ! आज यह हमारे सामने अत्यन्त दु:खद धर्म संकट उपस्थित हुआ हैं कि हिडिम्बा तुम्हें देखते ही काम से प्रेरित हो मेरे और युधिष्ठिर के पास आकर धर्मत: तुम्हें पति के रुप मे वरण कर चुकी है। मेरी आज्ञा है कि तुम उसे धर्म के लिये एक पुत्र प्रदान करो। वह हमारे लिये कल्याणकारी होगा। मैं इस विषय में तुम्हारा कोई प्रतिवाद नहीं सुनना चाहती। तुम हम दोनों के सामने प्रतिज्ञा करो।। वैशपाम्यनजी कहते हैं-जनमेजय ! ‘बहुत अच्छा’ कहकर भीमसेन ने वैसा ही करने की प्रतिज्ञा की (और हिडिम्बा के साथ गान्धर्व विवाह कर लिया)। तत्पश्चात् भीमसेन हिडिम्बा से इस प्रकार बोले- ‘राक्षसी ! सुनो, मैं सत्य की शपथ खाकर तुम्हारे सामने एक शर्त रखता हूं।
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