महाभारत आदि पर्व अध्याय 156 श्लोक 15-30

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षट्पञ्चाशदधिकशततम (156) अध्‍याय: आदि पर्व (बकवध पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: षट्पञ्चाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद

ब्राह्मण परिवार का कष्‍ट दूर करने के लिये कुन्‍ती को भीमसेन से बातचीत तथा ब्राह्मण के चिन्‍तापूर्ण उद्रार

‘इस समय निश्‍चय ही ब्राह्मण पर कोई भारी दु:ख आ पड़ा है। यदि उसमें मैं इसकी सहायता करुं तो वास्‍तविक उपकार हो सकता है’। भीमसेन बोले-मां ! पहले यह मालूम करो कि इस ब्राह्मण को क्‍या दु:ख है और वह किस कारण से प्राप्‍त हुआ है। जान लेने पर अत्‍यन्‍त दुष्‍कर होगा, तो भी मैं इसका कष्‍ट दूर करने के लिये उद्योग करुंगा। वैशम्‍पायनजी कहते हैं-राजन् ! वे मां-बेटे इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि पुन: पत्‍नी सहित ब्राह्मण का आर्तनाद उनके कानों मे पड़ा। तब कुन्‍तीदेवी तुरंत ही उस महात्‍मा ब्राह्मण के अन्‍त:पुर में घुस गयीं-ठीक उसी तरह जैसे घर में भीतर बंधे हुए बछडेवाली गाय स्‍वयं ही उसके पास पहुंच जाती है। भीतर जाकर कुन्‍ती ने ब्राह्मण को वहां पत्‍नी, पुत्र और कन्‍या के साथ नीचे मुंह किये बैठे देखा। ब्राह्मण देवता कह रहे थे-जगत् के इस जीवन को धिक्कार है; क्‍योंकि यह सारहीन, निरर्थक, दु:ख की जड़, पराधीन और अत्‍यन्‍त अप्रिय भागी है। जीने में महान् दु:ख है। जीवनकाल में बड़ी भारी चिन्‍ता का सामना करना पड़ता है। जिसने जीवन धारण कर रक्‍खा है, उसे दु:खों की प्राप्ति अवश्‍य होती है। जीवात्‍मा अकेला ही धर्म, अर्थ और काम का सेवन करता है। इनका वियोग होना भी उसके लिये महान् और अनन्‍त दु:ख का कारण होता है। कुछ लोग चारों पुरुषार्थों में मोक्ष को ही सर्वोतम बतलाते हैं, किंतु वह भी मेरे लिये किसी प्रकार सुलभ नहीं है। अर्थ की प्राप्ति होने पर तो नरक का सम्‍पूर्ण दु:ख भोगना ही पड़ता है। धन की इच्‍छा सबसे बड़ा दु:ख है किंतु धन प्राप्‍त करने में तो और भी अधिक दु:ख है और जिसकी धन में आसक्ति हो गयी है[१], उसे उस धन का वियोग होने पर इतना महान् दु:ख होता है, जिसकी कोई सीमा नहीं है। मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे इस विपत्ति से छुटकारा पा सकूं अ‍थवा पुत्र और स्‍त्री के साथ किसी निरापद स्‍थान में भाग चलूं । ब्राह्मणी ! तुम इस बात को ठीक- ठीक जानती हो कि पहले तुम्‍हारे साथ किसी ऐसे स्‍थान में चलने के लिये जहां सब प्रकार से अपना भला हो, मैंने प्रयत्‍न किया था; परंतु उस समय पुराने मेरी बात नहीं सुनी। मूढमते ! मैं बार-बार तुमसे अन्‍यत्र चलने के लिये अनुरोध करता। उस समय तुम कहने लगती थीं- ‘यहीं मेरा जन्‍म हुआ, यहां बड़ी हुर्इ तथा मेरे पिता भी यहीं रहते थे’। अरी ! तुम्‍हारे बूढ़े पिता-माता और पहले के भाई बन्‍धु जिसे छोड़कर बहुत दिन हुए स्‍वर्गलोक को चले गये, वहीं निवास करने के लिये यह आसक्ति कैसी?। तुमने बन्‍धु-बान्‍धवों के साथ रहने की इच्‍छा रखकर जो मेरी बात नहीं सुनी, उसी का यह फल है कि आज समस्‍त भाई-बन्‍धुओं के विनाश की घड़ी आ पहुंची है, जो मेरे लिये अत्‍यन्‍त दु:ख का कारण है अथवा यह मेरे ही विनाश का समय है; क्‍योंकि मैं स्‍वयं जीवित रहकर क्रूर मनुष्‍य भांति दूसरे किसी भाई-बन्‍धु का त्‍याग नहीं कर सकूंगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यावन्‍तो यस्‍य संयोगा द्रव्‍यैरिष्‍टैर्भवन्‍युत।तावन्‍तोअस्‍य निखन्‍यते हदये शोकशंका।।

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