महाभारत आदि पर्व अध्याय 175 श्लोक 40-49
पञ्चसप्तत्यधिकशततम (175 ) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
यों कहकर राजा ने तत्काल ही शक्ति के प्राण ले लिये और जैसे बाघ अपनी रुचि के अनुकूल पशु को चबा जाता है, उसी प्रकार वे भी शक्ति को खा गये। शक्ति को मारा गया देख विश्वामित्र बार-बार वसिष्ट के पुत्रों पर ही आक्रमण करने के लिये उसे राक्षस को प्रेरित करते थे। जैसे क्रोध में भरा हुआ सिंह छोटे मृगों को खा जाता है, उसी प्रकार उस (राक्षसमावायन्न) नरेश ने महात्मा वसिष्ट के उन सब पुत्रों को भी, जो शक्ति से छोटे थे, (मारकर) खा लिया। वसिष्ट ने यह सुनकर भी कि विश्वामित्र ने मेरे पुत्रों को मरवा डाला है, अपने शोक के वेग को उसी प्रकार धारण कर लिया जैसे महान् पर्वत सुमेरु इस पृथ्वी को। उस समय अपनी पुत्रवधुओं के दु:ख से दु:खित हो, वसिष्ठ ने अपने शरीर को त्याग देने का विचार कर लिया, परंतु विश्वामित्र का मूलोच्छेद करने की बात बुद्धिमानों में श्रेष्ठ मुनिवर वसिष्ठ के मन में ही नहीं आयी । महर्षि भगवान वसिष्ठ ने मेरुपर्वत के शिखर से अपने आपको उसी पर्वत की शिला पर गिराया; परंतु उन्हें ऐसा जान पड़ा मानो वे रुई के ढेर पर गिरे हो। पाण्डुनन्दन ! जब (इस प्रकार) गिरने से भी वे नहीं मरे, तब वे भगवान वसिष्ठ महान् वन के भीतर धधकते हुए दावानल में घुस गये। यद्यपि उस समय अग्नि प्रचण्ड वेग से प्रज्वलित हो रही थी, तो भी उन्हें जला न सकी। शत्रुसूदन अर्जुन ! उनके प्रभाव से वह दहकती हुई आग भी उनके लिये शीतल हो गयी। तब शोक के आवेश से युक्त महामुनि वसिष्ठ ने सामने समुद्र देखकर अपने कण्ठ में बड़ी भारी शिला बांध ली और तत्काल जल में कूद पड़े। परंतु समुद्र की लहरों में वेग ने उन महामुनि को किनारे लाकर डाल दिया। कठोर व्रत का पालन करने वाले ब्रहर्षि वसिष्ठ जब किसी प्रकार न मर सके, तब खिन्न होकर अपने आश्रम पर ही लौट पड़े।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तगर्त चैत्ररथपर्व में वसिष्ठ चरित्र के प्रसंग में वसिष्ठशोकविषयक एक सौ पचहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ।
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