महाभारत आदि पर्व अध्याय 177 श्लोक 20-29
सप्तसप्तत्यधिकशततम (177 ) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
तदनन्तर भृगुवंशियों के गर्भश्य बालकों की भी हत्या करते हुए वे क्रोधान्ध क्षत्रिय सारी पृथ्वी पर विचरने लगे। इस प्रकार भृगुवंश का उच्छेद आरम्भ होने पर भृगुवशियों की पत्नियां उस समय भय के मारे हिमालय की दुर्गम कन्दरा में जा छिपीं। उनमें से एक स्त्री ने अपने महान् तेस्वी गर्भ को भय के मारे एक ओर की जांघ को चीरकर उसमें रख लिया। उस वामोरुने अपने पति के वंश की वृद्धि के लिये ऐसा साहस किया था। उस गर्भ का समाचार जानकर कोई ब्राह्मणी बहुत डर गयी और उसने शीघ्र ही अकेली जाकर क्षत्रियों को समीप उसकी खबर पहुंचा दी। फिर तो वे क्षत्रियलोग उसे गर्भ की हत्या करने के लिये उद्यत हो वहां गये। उन्होंने देखा, वह ब्राह्मणी अपने तेज से प्रकाशित हो रही हैं। उसी समय उस ब्राह्मणी का वह गर्भस्थ शिशु उसकी जांघ फाड़कर बाहर निकल आया। बाहर निकलते ही दोपहर के प्रचण्ड सूर्य की भांति उस तेजस्वी शिशु ने (अपने वेग से) उन क्षत्रियों की आंखो की ज्योति छीन ली। तब वे अंधे होकर उस पर्वत के बीहढ़ स्थानों में भटकने लगे। फिर मोह के वशीभूत हो अपनी बुद्धि हो अपनी दृष्टि को खो देनेवाले क्षत्रियों ने पुन: दृष्टि प्राप्त करने के लिये उसी सती-साध्वी ब्राह्मणी की शरण ली। वे क्षत्रिय उस समय आंख की ज्योति से वज्रित हो बुझी हुई लपटोंवाली आग के समान अत्यन्त दु:ख से आतुर एवं अचेत हो रहे थे। अत: वे उस महान् सौभाग्यशालिनी देवी से इस प्रकार बोले- देवि ! यदि आपकी कृपा हो तो नेत्र पाकर यह क्षत्रियों का दल अब लौट जायगा, थोड़ी देर विश्राम करके हम सभी पापाचारी यहां से साथ ही चले जायेंगे। शोभने ! तुम अपने पुत्र के साथ हम सब पर प्रसन्न हो जाओ और पुन: नूतन द्दष्टि देकर हम सभी राजपुत्रों की रक्षा करो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तगर्त चैत्ररथपर्व में औवोंपाख्यानविषयक एक सौ सतहरवां अध्याय पूरा हुआ।
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