महाभारत आदि पर्व अध्याय 179 श्लोक 1-23
एकोनाशीत्यधिकशततम (179 ) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
और्य और पितरों की बातचीत तथा और्य का अपनी क्रोधाग्नि को बडवानरुप से समुद्र में त्यागना और्व ने कहा-पितरो ! मैंने क्रोधवश उस समय जो सम्पूर्ण लोकों के विनाश को प्रतिज्ञा कर ली थी, वह झूठी नहीं होनी चाहिये । जिसका क्रोध और प्रतिज्ञा निष्फल होते हो, ऐसा बनने की मेरी इच्छा नही है। यदि मेरा क्रोध सफल नहीं हुआ तो वह मुझको उसी प्रकार जला देगा, जैसे आग की अरणी काष्ठ को जला देती है। जो किसी कारणवश उत्पन्न हुए क्रोध को सह लेता है, वह मनुष्य धर्म, अर्थ और काम की रक्षा करने में समर्थ नहीं होता। सबको जीतने की इच्छा रखनेवाले राजाओं द्वारा उचित अवसर पर प्रयोग में लाया हुआ रोष दुष्टों का दमन और शत्रु पुरुषों की रक्षा करनेवाला हो। मैं जिन दिनों माता की एक जांघ में गर्भ-शय्या पर सोता था, उन दिनों क्षत्रियों द्वारा भार्गवों का वध होने पर माताओं का करुण क्रन्दन मुझे स्पष्ट सुनायी देता था। इन नीच क्षत्रियों ने जब गर्भ के बच्चों तक सिर काट काटकर संसार में भृगुवंशी ब्राह्मणों का संहार आरम्भ कर दिया, तब मुझमें क्रोध का आवेश हुआ। जिनकी कोख भरी हुई थी, वे मेरी माताएं और पितृगण भी भय के मारे समस्त लोकों में भाग से फिरे, किंतु उन्हें कहीं भी शरण नहीं मिले। जब भार्गवों की पत्नियों का कोई भी रक्षक नहीं मिला, तब मेरी इस कल्याणमयी माता ने मुझे अपनी एक जांघ में छिपा-कर रखा था। जब तक जगत् में कोई भी पापकर्म को रोकनेवाला होता हैं, तब तक सम्पूर्ण लोकों में पापियों का होना असम्भव नहीं होता। जब पापी मनुष्य को कही कोई रोकनेवाला नहीं मिलता, तब बहुतेरे मनुष्य पाप करने में लग जाते हैं। जो मनुष्य शक्तिमान् एवं समर्थ होते हुए भी जान बूझ-कर पाप को नही रोकता, वह भी उसी पापकर्म से लिप्त हो जाता है। इस लोक में अपना जीवन सबको प्रिय हैं, यह समझकर सबका शासन करनेवाले राजा लोग सामर्थ्य होते हुए भी मेरे पिताओं को रक्षा न कर सके, इसीलिये मैं भी इन सब लोकों पर कुपित हुआ हैं। मुझमें इन्हें दण्ड की देने की शक्ति है। अत: (इस विषय में) में आप लोग का वचन मानने में असमर्थ हूं। यदि मैं भी शक्ति रहते हुए लोगों के इस महान् पापाचार को उदासीनभाव से चुपचाप देखता रहूं, तो मुझे भी उन लोगों के पाप से भय हो सकता है। मेरे क्रोध से उत्पन्न हुई जो यह आग (सम्पूर्ण) लोकों को अपनी लपटों से लपेट लेना चाहती हैं, यदि मैं इसे रोक दूं तो यह मुझे ही अपने तेज से जलाकर भस्म कर डालेगी। मैं यह भी जानता हूं कि आप लोग समस्त जगत् का हित चाहनेवाले हैं। अत: शक्तिशाली पितरो ! आप लोग ऐसा करें, जिससे इन लोकों का और मेरा भी कल्याण हो। पितर बोले-और्य ! तुम्हारे क्रोध से उत्पन्न हुई जो यह अग्नि सब लोको को अपना प्राप्त बनाना चाहता हैं, उसे तुम जल में छोड़ दो, तुम्हारा कल्याण हो; क्योंकि (सभी) लोक जल में प्रतिष्ठित हैं। सभी रस जल के परिणाम हैं तथा सम्पूर्ण जगत् (भी) जल का परिणाम माना गया है। अत: द्विजश्रेष्ठ ! तुम अपनी इस क्रोधाग्रि को जल में ही छोड़ दो। विप्रवर ! यदि तुम्हारी इच्छा हो तो वह क्रोधाग्रि अल को जलाती हुई समुद्र में स्थित रहें, क्योंकि सभी लोक जल के परिणाम माने गये हैं। अनव ! ऐसा करने में तुम्हारी प्रतीक्षा भी सच्ची हो जायगी और देवताओ सहित समस्त लोक भी नष्ट नहीं होगे।। वसिष्ठजी कहते हैं-पराशर ! तब और्व ने (अपनी) उस क्रोधाग्रि को समुन्द्र में डाल दिया। आज भी वह बहुत बड़ी घोड़ी के मुख की-सी आकृति धारण करके महासागर के जल का पान करती रहती है। वेदज्ञ पुरुष उससे (भलीभांति) परिचित है। वह बड़वा अपने मुख से वहीं आग उगलती हुई महासागर का जल पीती रहती है । ज्ञानियों में श्रेष्ठ पराशर ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम परलोक की भलीभांति जानते हो, अत: तुम्हें भी समस्त लोंकों का विनाश नहीं करना चाहिये ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तगर्त चैत्ररथपर्व में और्वोपाख्यानविषयक एक सौ उनासीवां अध्याय पूरा हुआ।
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