महाभारत आदि पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-13
सप्तदश (17) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
उग्रश्रवाजी कहते हैं—तपोधन ! इसी समय कद्रू और विनता दोनों बहिनें एक साथ ही घूमने के लिये निकलीं । उस समय उन्होंने उच्चैःश्रवा नामक घोड़े को निकट से जाते देखा। वह परम उत्तम अश्वरत्न अमृत के लिये समुद्र का मन्थन करते समय प्रकट हुआ था। उसमें अमोध बल था। वह संसार के समस्त अश्वों में श्रेष्ठ, उत्तम गुणों से युक्त, सुन्दर, अजर, दिव्य एवं सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से संयुक्त था। उसके अंग बड़े हृष्ट-पुष्ट थे। सम्पूर्ण देवताओं ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। शौनकजी ने पूछा—सूतनन्दन ! अब मुझे यह बताइये कि देवताओं ने अमृत मन्थन किस प्रकार और किस स्थान पर किया था, जिसमें वह महान बल-पराक्रम से सम्पन्न और अत्यन्त तेजस्वी अश्वराज उच्चैःश्रवा प्रकट हुआ। उग्रश्रवाजी ने कहा—शौनकजी ! मेरू नाम से प्रसिद्ध एक पर्वत है, जो अपनी प्रभा से प्रज्वलित होता रहता है। वह तेज का महान पुंज और परम उत्तम है। अपने अत्यन्त प्रकाशमान सुवर्णमय शिखरों से वह सूर्यदेव की प्रभा को भी तिरस्कृत किये देता है। उस स्वर्णभूषित विचित्र शैल पर देवता और गन्धर्व निवास करते हैं। उसका कोई माप नहीं है। जिसमें पाप की मात्रा अधिक है, ऐसे मनुष्य वहाँ पैर नहीं रख सकते। वहाँ सब ओर भयंकर सर्प भरे पड़े हैं। दिव्य औषधियाँ उस तेजोमय पर्वत को और भी उद्भासित करती रहती हैं। वह महान गिरिराज अपनी ऊँचाई से स्वर्ग लोक को घेर कर खड़ा है। प्राकृत मनुष्यों के लिये वहाँ मन से भी पहुँचना असम्भव है। वह गिरिप्रदेश बहुत सी नदियों और असंख्य वृक्षों से सुशोभित है। भिन्न-भिन्न प्रकार के अत्यन्त मनोहर पक्षियों के समुदाय अपने कलरव से उस पर्वत को कोलाहलपूर्ण किये रहते हैं। उसके शुभ एवं उच्चतम श्रृंग असंख्य चमकीले रत्नों से व्याप्त हैं। वे अपनी विशालता के कारण आकाश के समान अनन्त जान पड़ते हैं। समस्त महातेजस्वी देवता मेरूगिरि के उस महान शिखर पर चढ़कर एक स्थान में बैठ गये और सब मिलकर अमृत प्राप्ति के लिये क्या उपाय किया जाये, इसका विचार करने लगे। वे सभी तपस्वी तथा शौच-संतोष आदि नियमों से संयुक्त थे। इस प्रकार परस्पर विचार एवं सबके साथ मंत्रणा में लगे हुए देवताओं के समुदाय में उपस्थित हो भगवान नारायण ने ब्रह्माजी से यों कहा--‘समस्त देवता और असुर मिलकर महासागर का मन्थन करें। उस महासागर का मन्थन आरम्भ होने पर उसमें से अमृत प्रकट होगा।' ‘देवताओं ! पहले समस्त ओषधियों, फिर सम्पूर्ण रत्नों को पाकर भी समुद्र का मन्थन जारी रखो। इससे अन्त में तुम लोगों को निश्चय ही अमृत की प्राप्ति होगी।'
« पीछे | आगे » |