महाभारत आदि पर्व अध्याय 184 श्लोक 18-37
चतुरशीत्यधिकशततम (184 ) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
वहां सैकड़ो प्रकार के बाजे बज रहे थे। बहुमूल्य अगुरु धूप की सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी। फर्श पर चन्दन के जल का छिड़ किया गया था। सब ओर फूलों की मालाएं और हार टंगे थे, जिसमें वहां की शोभा बहुत बढ़ गयी थी।। उस रंगमण्डप के चारों ओर कैलास शिखर के समान ऊंचे और श्वेत रंग के गगनचुम्बी महल बने हुए थे। उन्हें भीतर से सोने के जालीदार पर्दों और झालरों से सजाया गया था। वहां ओर दीवारों में मणि एवं रत्न जड़े गये थे। उत्तम सुखपूर्वक चढ़ने योग्य सीढ़ियां बनी थी। बड़े-बड़े आसन और बिछावन आदि बिछाये गये थे। अनेक प्रकार की मालाएं और हार उन भवनों की शोभा बढ़ा रहे थे। अगुरु की सुगन्ध छा रही थी। वे इस और चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत दिखायी देते थे। उनके भीतर से निकली हुई धूप की सुगन्ध चारों ओर एक योजन-तक फैल रही थी। उन महलों में सैकड़ों दरवाजे थे। उनके भीतर आने-जाने के लिये बिल्कुल रोक-टोक नहीं थी और वे भांति-भांति की शय्याओं तथा आसनों से सुशोभित थे। उनकी दीवारों को अनेक प्रकार की धातुओं के रंगों से रंगा गया था। अत: वे राजमहल हिमालय के बहुरंगे शिखरों के समान सुशोभित हो रहे थे। उन्हीं सतमहले मकानों या विमानों में, जो अनेक प्रकार के बने हुए थे, सब राजा लोग परस्पर एक दूसरे से होड़ रखते हुए सुन्दर-से-सुन्दर श्रंगार धारण करके बैठे। नगर और जनपद के लोगों ने जब देखा कि उक्त विमानों में बहुमूल्य मञ्चों के ऊपर महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न परम सौभाग्यशाली, कालागुरु से विभूषित, महान् कृपाग्र साद से युक्त, ब्राह्मणभक्त, अपने-अपने राष्ट्र के रक्षक और शुभ पुण्यकर्मों के प्रभाव से सम्पूर्ण जगत् के प्रिय श्रेष्ठ नरपतिगण आकर बैठे गये हैं, तप राजकुमारी द्रौपदी के दर्शन का लाभ लेने के लिये वे भी सब ओर सुख-पूर्वक जा बैठे। वे पाण्डव भी पाञ्चालनरेश की उस सर्वोतम समृद्धि का अवलोकन करते हुए ब्राह्मणों के साथ उन्हीं की पंगशक्ति में बैठे थे। राजन् ! नगर में बहुत दिनों से लोगों की भीड़ बह रही थी। राजसमाज के द्वारा प्रचुर धन रत्नों का दान किया जा रहा था। बहुतेरे नट और नर्तक अपनी कला दिखाकर उस समाज को शोभा बढ़ा रहे थे। सोलहवें दिन अत्यन्त मनोहर समाज जुटा। भरतश्रेष्ठ ! उसी दिन स्नान करके सुन्दर वस्त्र और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित हो हाथों में सोने की बनी हुई कामदार जयमाला लिये द्रुपदराजकुमारी उस रंग भूमि में उतरी। तब सोमकवंशी क्षत्रियों के पवित्र एवं मन्त्रज्ञ ब्राह्मण पुरोहित ने अग्निवेदी के चारों ओर कुशा बिछाकर वेदोक्त विधि के अनुसार प्रज्वलित अग्नि में घी की आहुति डाली। इस प्रकार अग्रिदेव को तृप्त करके ब्राह्मणों को स्वस्तिवाचन कराकर चारों ओर बजनेवाले सब प्रकार के बाजे बंद करा दिये गये। महाराज ! बाजों की आवाज बंद हो जाने पर जब स्वयंवर सभा में सन्नाटा छा गया, तब विधि के अनुसार धृष्टद्युम्न द्रौपदी को (साथ) लेकर रंगमण्डप के बीच में खड़ा हो मेघ और दुन्दुभि के समान स्वर तथा मेघगर्जन की सी गम्भीर वाणी में यह अर्थयुक्त उत्तम एवं मधुर वचन बोला-। यहां आये हुए भूपालगण ! आप लोग (ध्यान देकर) मेरी बात सुनें। यह धनुष हैं, ये बाण हैं और यह निशाना है ।आप लोग आकाश में छोड़े हुए पांच पैने बाणों द्वारा उस यन्त्र के छेद से लक्ष्य को बेधकर गिरा दें। मैं सच कहता हूं , झूठ नहीं बोलता-जो उत्तम कुल, सुन्दर रुप और श्रेष्ठ बल से सम्पन्न वीर यह महान् कर्म कर दिखायेगा, आज यह मेरी बहिन कृष्णा उसी की धर्मपत्नी होगी। यों कहकर द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न ने वहां आये हुए राजाओं के नाम, गोत्र और पराक्रम का वर्णन करते हुए अपनी बहिन द्रौपदी से इस प्रकार कहा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत स्वयंवरपर्व में धृष्टधुम्न वाक्य विषयक एक सौ चौरासीवां अध्याय पूरा हुआ।
« पीछे | आगे » |