महाभारत आदि पर्व अध्याय 186 श्लोक 1-17
षडशीत्यधिकशततम (186) अध्याय: आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)
राजाओं का लक्ष्यवेध के लिये उद्योग और असफल होना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! ये सब नवयुवक राजा अनेक आभूषणों से विभूषित हो कानों में कुण्डल पहने और परस्पर लाग-डांट रखते हुए हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये अपने-अपने आसनों से उठने लगे। उन्हें अपने में ही सबसे अस्त्रविद्या और बल के होने का अभिमान था; सभी को अपने रुप, पराक्रम, कुल, शील, धन और जवानी-का बड़ा घमंड था। वे सभी मस्तक से वेगपूर्वक मद की धारा बहाने वाले हिमाचल प्रदेश के गजराजों की भांति उन्मत्त हो रहे थे। वे एक दूसरे को बड़ी स्पर्धा से देख रहे थे। उनके सभी अंगों के कामोन्माद व्याप्त हो रहा था। ‘ कृष्णा तो मेरी ही होने वाली है’ यह कहते हुए वे अपने राजोचित आसनों से सहसा उठकर खड़े हो गये। रुपदकुमारी को पाने की इच्छा से रंगमण्डप में एकत्र हुए वे क्षत्रियनरेश गिरिराजनन्दिनी उमा के विवाह में इकटठे हुए देवताओं की भांति शोभा पा रहे थे। कामदेव के बाणों की चोट से उनके सभी अंगों में निरन्तर पीड़ा हो रही थी। उनका मन द्रौपदी में ही लगा हुआ था। द्रुपदकुमारी को पाने के लिये रंग भूमि में उतरे हुए वे सभी नरेश वहां अपने सुहद् राजाओं से भी ईर्ष्या करने लगे।। इसी समय रुद्र, आदित्य, वशु, अश्विनीकुमार, समस्त साध्यगण तथा मरुद्रण यमराज और कुबेर को आगे करके अपने-अपने विमानों पर बैठकर वहां आये। दैत्य, सुपर्ण, नाग, देवर्षि, गुह्मक, चारण तथा विश्र्वावसु, नारद और पर्वत आदि प्रधान-प्रधान गन्धर्व भी अप्सराओं को साथ लिये सहसा आकाश में उपस्थित हो गये। (अन्य राजा लोग द्रौपदी की प्राप्ति के लिये लक्ष्य बेधने के विचार में पड़े थे, किंतु) भगवान् श्रीकृष्ण की सम्मति के अनुसार चलने वाले महान् यदुश्रेष्ठ, जिनमें बलराम और श्रीकृष्ण आदि वृष्णि और अन्धक वंश के प्रमुख व्यक्ति वहां उपस्थित थे, चुपचाप अपनी जगह पर बैठे-बैठे देख रहे थे।। यदुवंशी वीरों के प्रधान नेता श्रीकृष्ण ने लक्ष्मी के सम्मुख विराजमान गजराजों तथा राख में छिपी हुई आग के समान मतवाले हाथी-की-सी आकृति वाले पाण्डवों को, जो अपने सब अंगों में भस्म लपेटे हुए थे, देखकर (तुरंत) पहचान लिया।। और बलरामजी से धीरे-धीरे कहा- भैया ! वह देखिये, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन और दोनों जुड़वे वीर नकुल-सहदेव उधर बैठे हैं।‘ बलरामजी ने उन्हें देखकर अत्यन्त प्रसन्न चित्त हो भगवान् श्रीकृष्ण को ओर द्दष्टिपात किया। दूसरे-दूसरे वीर राजा, राजकुमार एवं राजाओं के पौत्र अपने नेत्रों, मन और स्वभाव को द्रौपदी की ओर लगाकर उसी को देख रहे थे, अत: पाण्डवों की ओर उनकी द्दष्टि नहीं गयी। वे जोश में आकर दांतों से ओठ चबा रहे थे और रोष से उनकी आंखे लाल हो रही थी। इसी प्रकार वे महाबाहु कुन्तीपुत्र तथा दोनों महानुभाव वीर नकुल-सहदेव सब-के-सब द्रौपदी को देखकर तुरंत कामदेव के बाणों से घायल हो गये। राजन् ! उस समय वहां का आकाश देवर्षियों तथा गन्धर्वों से खचाखच भरा था। सुपर्ण, नाग, असुर और सिद्धों का समुदाय वहां जुट गया था। सब और दिव्य सुगन्ध व्याप्त हो रही थी और दिव्य पुष्पों की वर्षा की जा रही थी।। वृहत शब्द करने वाली दुन्दुभियों के नाद से सारा अन्तरिक्ष गूंज उठा था। चारों ओर का आकाश विमानों से ठसाठस भरा था और वहां बांसुरी, वीणा तथा ढोल की मधुर ध्वनि हो रही थी। तदनन्तर वे नृपतिगण द्रौपदी के लिये क्रमश: अपना पराक्रम प्रकट करने लगे। कर्ण, दुर्योधन, शाल्व, शल्य, अश्वत्थामा, क्राथ, मुनीथ, वक्र, कलिगराज, वगनरेश, पाण्डयनरेश, पौण्ड्र देश के अधिपति, विदेह के राजा, यवनदेश के अधिपति तथा अन्यान्य अनेक राष्ट्रों के स्वामी, बहुतेरे राजा, राजपुत्र तथा राजपौत्र, जिनके नेत्र प्रफुल्ल कमलपत्र के समान शोभा पा रहे थे, जिनके विभिन्न अंगों में किरीट, हार, अंगद (बाजूबंद) तथा कड़े आदि आभूषण शोभा दे रहे थे तथा जिनकी भुजाएं बड़ी-बड़ी थी, वे सब-के-सब पराक्रमी और धैर्य से युक्त हो अपने बल और शक्ति पर गर्जते हुए क्रमश: उस धनुष पर अपना बल दिखाने लगे।
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