महाभारत आदि पर्व अध्याय 196 श्लोक 13-24
षण्णवत्यधिकशततम (196) अध्याय: आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)
युवती बोली- देवराज इन्द्र ! मैं एक भाग्यहीन अबला हूं; कौन हूं और किस लिये रो रही हूं, यह सब तुम्हें ज्ञात हो जायगा। तुम मेरे पीछे-पीछे आओ, मैं आगे-आगे चल रही हूं। वहां चलकर स्वयं ही देख लोगे कि मैं किस लिये रोती हूं। व्यासजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर आगे-आगे जाती हुर्इ उस स्त्री के पीछे-पीछे उस समय इन्द्र भी गये। गिरिराज हिमालय के शिखर पर पहुंचकर उन्होंने देखा- पास ही एक परम सुन्दर तरुण पुरुष सिद्धासन से बैठे हैं, उनके साथ एक युवती भी है। इन्द्र ने उस युवती के साथ उन्हें क्रीडा—विनोद करते देखा। वे अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों से क्रीडा में अत्यन्त तन्मय हो रहे थे, अत: इधर-उधर उनका ध्यान नहीं जाता था। उन्हें इस प्रकार असावधान देख देवराज इन्द्र ने कुपित होकर कहा- ‘महानुभाव ! यह सारा जगत् मेरे अधिकार में है, मेरी आज्ञा के अधीन है; मैं इस जगत् का र्इश्वर हूं’। इन्द्र को क्रोध में भरा देख वे देव पुरुष हंस पडे़। उन्होंने धीरे से आंख उठाकर उनकी ओर देखा। उनकी दृष्टि पड़ते ही देवराज इन्द्र का शरीर स्तम्भित हो गया (अकड़ गया)। वे ठूंठे काठ की भांति निश्चेष्ट हो गये। तब उनकी वह क्रीड़ा समाप्त हुर्इ, तब वे उस रोती हुई देवी से बोले- ‘इस इन्द्र को जहां मैं हूं, यहीं-मेरे समीप ले आओ, जिससे फिर इसके भीतर अभिमान का प्रवेश न हो’। तदनन्तर उस स्त्री ने ज्यों ही इन्द्र का स्पर्श किया, उनके सारे अंग शिथिल हो गये और वे धरती पर गिर पड़े। तब उग्र तेजस्वी भगवान् रुद्र ने उनसे कहा- ‘इन्द्र ! फिर किसी प्रकार भी ऐसा घमंड न करना। ‘तुममें अनन्त बल और पराक्रम है, अत: इस गुफा के दरवाजे पर लगे हुए इस महान् पर्वतराज को हटा दो और इसी गुफा के भीतर घुस जाओ, जहां सुर्य के समान तेजस्वी तुम्हारे-जैसे और भी इन्द्र रहते हैं’। उन्होंने उस महान् पर्वत की कन्दरा का द्वार खोलकर उसमें अपने ही समान तेजस्वी अन्य चार इन्द्रों को भी देखा। उन्हें देखकर वे बहुत दुखी हुए और सोचने लगे- ‘कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि मैं भी इन्हीं के समान दुर्दशा में पड़ जाऊं। तब पर्वत पर शयन करनेवाले महादेवजी ने आंखे तरेरकर कुपित हो वज्रधारी इन्द्र से कहा- ‘शतक्रतो ! तुमने मूर्खतावश पहले मेरा अपमान किया है, इसलिये अब इस कन्दरा में प्रवेश करो’। उस पर्वत-शिखर पर भगवान् रुद्र के यों कहने पर देवराज इन्द्र पराभव की आंशका से अत्यन्त दुखी हो गये, उनके सारे अंग शिथिल पड़ गये और हवा से हिलनेवाले पीपल के पत्ते की तरह वे थर-थर कांपने लगे। वृषभवाहन भगवान् शंकर के द्वारा इस प्रकार सहसा गुहा-प्रवेश की आज्ञा मिलने पर कांपते हुए इन्द्र ने हाथ जोड़कर उन अनेक रुपधारी उग्रस्वरुप रुद्रदेव से कहा- ‘जगद्योने ! आप ही समस्त जगत् की उत्पत्ति करनेवाले आदिपुरुष हैं’।तब भयंकर तेजवाले रुद्र ने हंसकर कहा- ‘तुम्हारे जैसे शील-स्वभाव वाले लोगों को यहां प्रसाद की प्राप्ति नहीं होती। ये लोग भी पहले तुम्हारे ही जैसे थे, अत: तुम भी इस कन्दरा में घुसकर शयन करो।
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