महाभारत आदि पर्व अध्याय 196 श्लोक 37-53
षण्णवत्यधिकशततम (196) अध्याय: आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)
नरेन्द्र ! मैं तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक एक और अद्भुत वर के रुप में यह दिव्य दृष्टि देता हूं; इससे सम्पन्न होकर तुम कुन्ती के पुत्रों को उनके पूर्वकालिक पुण्यमय दिव्य शरीरों से सम्पन्न देखो।। वैशम्पायनजी कहते हैं जनमेजय ! तदनन्तर परम उदार कर्मवाले ब्रह्मर्षि व्यासजी ने अपनी तपस्या के प्रभाव से राजा द्रुपद को दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे उन्होंने समस्त पाण्डवों को पूर्वशरीरों से सम्पन्न वास्तविक रुप में देखा।। वे दिव्य शरीर से सुशोभित थे। उनके मस्तक पर सुवर्णमय किरीट और गले में सुन्दर सोने की माला शोभा पा रही थी। उनकी छवि इन्द्र के ही समान थी। वे अग्नि और सूर्य के समान कान्तिमान् थे। उन्होंने अपने अंगों में सब तरह के दिव्य अलंकार धारण कर रक्खे थे। उनकी युवावस्था थी तथा रुप अत्यन्त मनोहर था। उन सबकी छाती चौड़ी थी और वे ताल वृक्ष के समान लंबे थे। इस रुप में राजा द्रुपद ने उनका दर्शन किया । वे दिव्य निर्मल वस्त्रों, उत्तम गन्धों और सुन्दर मालाओं से अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे और साक्षात् त्रिनेत्र महादेव, वसुगण, रुद्रगण अथवा आदित्यगणों के समान तेजस्वी एवं सर्वगुण सम्पन्न दिखायी देते थे। चारों पाण्डवों को परम सुन्दर पूर्वकालिक इन्द्रों के रुप में तथा इन्द्र पुत्र अर्जुन को भी इन्द्र के ही स्वरुप में देखकर उस अप्रमेय दिव्य माया पर दृष्टि पात करके राजा द्रुपद अत्यन्त प्रसन्न एवं आश्चर्यचकित हो उठे। उन राजराजेश्वर ने अपनी पुत्री को भी सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी, अत्यन्त रुपवती और साक्षात् चन्द्रमा तथा अग्नि के समान प्रकाशित होनेवाली दिव्य नारी के रुप में देखा। साथ ही यह मान लिया कि द्रौपदी रुप, तेज और यश की दृष्टि से अवश्य उन पाण्डवों की पत्नी होने योग्य है। इससे उन्हें महान् हर्ष हुआ। यह महान् आश्चर्य देखकर द्रुपद ने सत्यवती नन्दन व्यासजी के चरण पकड़ लिये और प्रसन्नचित्त होकर उनसे कहा- ‘महर्षे ! आपमें ऐसी अद्भूत शक्ति का होना आश्चर्य की बात नहीं है।‘ तब व्यासजी प्रसन्नचित्त हो द्रुपद से बोले।। व्यासजी ने कहा- राजन् ! (अपनी पुत्री के एक और जन्म का वृतान्त सुनो) एक तपोवन में किसी महात्मा मुनि की कोई कन्या रहती थी। सती-साध्वी एवं रुपवती होने पर, भी उसे योग्य पति की प्राप्ति नहीं हुई। उसने कठोर तपस्या द्वारा भगवान् शंकर को संतुष्ट किया; महादेवजी प्रसन्न होकर साक्षात् प्रकट होकर उस मुनि-कन्या से बोले-‘तुम मनोवाच्छित वर मांगो’। उनके यों कहने पर उस मुनि-कन्या ने वरदायक महेश्वर से बार-बार कहा- ‘मैं सर्वगुण सम्पन्न पति चाहती हूं’।। देवेश्वर भगवान शंकर प्रसन्नचित्त होकर उसे वर देते हुए बोले- ‘भद्रे ! तुम्हारे पांच पति होंगे’ । यह सुनकर उसने महादेवजी को प्रसन्न करते हुए पुन: यह बात कही- ‘शंकरजी ! मैं तो आपसे एक ही गुणवान् पति प्राप्त करना चाहती हूं’ । तब देवाधिदेव महादेवजी ने मन-ही-मन अन्यन्त संतुष्ट होकर उससे यह शुभ वचन कहा-‘भद्रे ! तुमने ‘पति दीजिये’ इस वाक्य को पांच बार दुहराया है; इसलिये मैंने जो पहले कहा है, वैसा ही होगा, तुम्हारा कल्याण हो। किंतु तुम्हें दूसरे शरीर में प्रवेश करने पर यह सब होगा’। द्रुपद ! वही मुनि कन्या तुम्हारी इस दिव्य रुपिणी पुत्री के रुप में फिर उत्पन्न हुर्इ है। अत: यह पृषत-वंश की सती कन्या कृष्णा पहले से ही पांच पतियों की पत्नी नियत की गयी है। यह स्वर्गलोक की लक्ष्मी है, जो पाण्डवों के लिये तुम्हारे महायज्ञ में प्रकट हुई है। इसने अत्यन्त घोर तपस्या करके इस जन्म में तुम्हारी पुत्री होने का सौभाग्य प्राप्त किया है। महाराज द्रुपद ! वही यह देवसेवित सुन्दरी देवी अपने इस कर्म से पांच पुरुषों की एक ही पत्नी नियत की गयी है। स्वयं ब्रह्माजी इसे देव स्वरुप पाण्डवों की पत्नी होने के लिये रचा है। यह सब सुनकर तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत वैवाहिक पर्व में इन्द्रों के उपाख्यान का वर्णन करनेवाला एक सौ छानबेवां अध्याय पूरा हुआ।
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