महाभारत आदि पर्व अध्याय 199 श्लोक 8
नवनवत्यधिकशततम (199) अध्याय: आदि पर्व (विदुरागमनराज्यलम्भपर्व) )
देखो न; धर्मात्मा, सदाचारी तथा माता के प्रिय एवं हित में तत्पर रहने वाले कुन्तीकुमारों को भी यह धृतराष्ट्र नष्ट करना चाहता है (भला, इससे बढ़कर निन्दनीय कौन होगा)।‘ जनमेजय उधर स्वंयवर समाप्त होने पर धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, जिन्हें कर्ण और शकुनि ने बिगाड़ रक्खा था, इस प्रकार सलाह करने लगे। शकुनि बोला- संसार में कोई शत्रु तो ऐसा होता है, जिसे सब प्रकार से दुर्बल कर देना उचित है; दूसरा ऐसा होता है जिसे सदा पीड़ा दी जाय। परंतु कुन्ती के वे सभी पुत्र तो समस्त क्षत्रियों के लिये समूल नष्ट कर देने योग्य हैं। इनके विषय में मेरा यही मत है। यदि इस प्रकार पराजित होकर आप सब लोग इन (पाण्डवों के विनाश की) युक्ति निश्चित किये बिना ही चले जायंगे, तो अवश्य ही यह भूल आप लोगों को सदा संतृप्त करती रहेगी। पाण्डवों को जड़ मूल सहित विनष्ट करने के लिये हमारे सामने यही उपयुक्त देश और काल उपस्थित है। यदि आप लोग ऐसा नहीं करेंगे तो संसार में उपहास के पात्र होंगे। ये पाण्डव जिस राजा के आश्रय में रहने की इच्छा रखते हैं, उस द्रुपद का बल और पराक्रम मेरी राय में बहुत थोड़ा है। जब तक वृष्णिवंश के श्रेष्ठ वीर यह नहीं जानते कि पाण्डव जीवित हैं, पुरुषसिंह चेदिराज प्रतापी शिशुपाल भी जब तक इस बात से अनभिज्ञ है, तभी तक पाण्डवों को मार डालना चाहिये। राजन् ! जब ये महात्मा राजा द्रुपद के साथ मिलकर एक हो जायंगें, तब इन्हें परास्त करना अत्यन्त कठिन हो जायगा, इसमें संशय नहीं है। जब तक राजा ढीले पड़े हैं, तभी तक हमें पाण्डवों के वध के लिये पूरा प्रयत्न कर लेना चाहिये। विषधर सर्प के मुख-सदृश भयंकर लाक्षागृह से तो वे बच ही गये हैं। यदि फिर हमारे हाथ से छूट जाते हैं तो उनसे हम लोगों को महान् भय प्राप्त हो सकता है। यदि वे वृष्णिवंशी और चेदिवंशी वीर यहां आ जायं और यहां के नागरिक भी अस्त्र-शस्त्र लेकर खड़े हो जायं तो इनके बीच मे खड़ा होना उतना कठिन होगा, जितना आपस में लड़ते हुए दो विशाल मेढों के बीच में ठहरना। जब तक हल धारण करनेवाले बलरामजी के द्वारा संचालित बलवान् योद्धाओं की सेनाएं स्वयं ही आकर कौरव-सेनारुपी खेती पर टिड्डियों की भांति टूट न पड़े, तब तक हम सब लोग एक साथ आक्रमण करके इस नगर को नष्ट कर दें। नरश्रेष्ठ वीरों ! मैं इस अवसर पर यही सर्वोत्तम कर्तव्य मानता हूं ! वैशम्पायनजी कहते हैं-दुर्बुद्धि शकुनि का यह प्रस्ताव सुनकर सोमदत कुमार भूरिश्रवा ने यह उत्तम बात कही।भूरिश्रवा बोले-अपने पक्ष की और शत्रु पक्ष की भी सातों प्रकृतियों[१] को ठीक-ठीक जानकर देश और काल का ज्ञान रखते हुए छ: प्रकार के गुणों का यथावसर प्रयोग करना चाहिये।स्थान, वृद्धि, क्षय,भूमि,मित्र और पराक्रम-इन सबकी ओर दृष्टि रखते हुए यदि शत्रु संकट से पिड़ीत हो तभी उस पर आक्रमण करना चाहिये।इस दृष्टि से देखने पर मैं पाण्डवों को मित्र और खजाना दोनों से सम्पन्न मानता हूं। वे बलवान् तो है हीं, पराक्रमी भी हैं और अपने सत्कर्मों द्वारा समस्त प्रजा के प्रिय हो रहे हैं। अर्जुन अपने शरीर की गठन से (सभी) मनुष्यों के नेत्रों तथा ह्रदय को आनन्द प्रदान करते हैं और मीठी-मीठी वाणी द्वारा सबके कानों को सुख पहुंचाते हैं। केवल प्रारब्ध से ही प्रजा उनकी सेवा नहीं करती। प्रजा के मन को जो प्रिय लगता हैं, उसकी पूर्ति अर्जुन[२] अपने प्रयत्नों द्वारा करते रहते हैं। मनोहर वचन बोलनेवाले अर्जुन की वाणी कभी ऐसा वचन नहीं बोलती, जो अयुक्त, आसक्तिपूर्ण, मिथ्या तथा अप्रिय हो। समस्त पाण्डव राजोचित लक्षणों से सम्पन्न तथा उपर्युक्त गुणों से विभूषित हैं। मैं ऐसे किन्हीं वीरों को नहीं देखता, जो अपने बल से पाण्डवों का वास्तव में उच्छेद कर सकें। उनकी प्रभावशक्ति विपुल है, मन्त्र शक्ति भी प्रचुर है तथा उत्साहशक्ति भी पाण्डवों में सबसे अधिक है। युधिष्ठिर इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि कब स्वाभाविक बल का प्रयोग करना चाहिये तथा कब मित्र और सैन्य बल का। राजा युधिष्ठिर साम, दान, भेद और दण्ड-नीती के द्वारा ही यथासमय शत्रु को जीतने का प्रयत्न करते हैं, क्रोध के द्वारा नहीं-ऐसा मेरा विश्वास है। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर प्रचुर धन देकर शत्रुओं को, मित्रों-को तथा सेनाओं को खरीद लेते हैं और अपनी नींव को सुदृढ़ करके शत्रुओं का नाश करते हैं। मैं ऐसा मानता हूं कि इन्द्र आदि देवता भी उन पाण्डवों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते, जिनकी सहायता के लिये कृष्ण और बलराम दोनों सदा कमर कसे रहते हैं। यदि आप लोग मेरी बात को हितकर मानते हों, यदि मेरे मत के अनुकूल ही आप लोग का मत हो, तो हम लोग पाण्डवों से मेल करके जैसे आये हैं, वैसे ही लौट चलें। यह श्रेष्ठ नगर गोपुरों, ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं तथा सैकड़ों उपतल्पों से सुरक्षित है। इसके चारों और जल से भरी खाई है। घास-चारा, अनाज, ईधन, रस, यन्त्र, आयुध तथा औषध आदि की यहां बहुतायत है। बहुत-से कपाट, द्रव्यागार और भूसा आदि से भी यह नगर भरपूर है। यहां बड़ें भयंकर और ऊंचे विशाल चक्र हैं। बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं की पंक्ति इस नगर को घेरे हुए है। इसकी चहारदीवारी और छज्जे सुद्दढ़ हैं। शतन्नी (तोप) नामक अस्त्रों से समुदाय से यह नगरी घिरी हुई है। इसकी रक्षा के लिये तीन प्रकार का घेरा बना है- एक तो ईटों का, दूसरा काठ का और तीसरा मानव-सैनिकों का। चहारदिवारी बनाने वाले वीरों ने यहां नरगर्भ की पूजा की है। इस प्रकार यह नगर श्वेत नरगर्भ से शोभित है। अनेक ताड़के बराबर ऊंचे शालवृक्षों की पंक्तियों द्वारा यह श्रेष्ठ नगरी सब ओर से घिरी हुई है। महामना राजा द्रुपद की सभी प्रजा और प्रकृतियों (मन्त्री आदि) उनमें अनुराग रखती है। बाहर और भीतर के सभी कर्मचारियों का दान और मान-द्वारा सत्कार किया जाता है। भयानक पराक्रमी राजाओं द्वारा पाण्डवों को सब ओर से घिरा हुआ जानकर समस्त यदुवंशी वीर प्रचण्ड अस्त्र-शस्त्र लिये यहां उपस्थित हो जायंगे। अत: हम धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन की पाण्डवों के साथ संधि कराकर अपने राज्य में ही लौट चलें। यदि आप लोगों को मेरी बात पर विश्वास हो और मेरा यह मत सबको ठीक जंचता हो तो आप सब लोग इसे काम मे लायें। हमारा यही सर्वोत्तम कर्तव्य है और मैं इसी को राजाओं के लिये कल्याणकारी मानता हूं। स्वयंवर समाप्त हो जाने पर जब यह ज्ञात हुआ कि द्रौपदी ने पाण्डवों का वरण किया है, तब वे सभी राजा जैसे आये थे, वैसे ही (अपने अपने) देश को लौट गये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ राज्य के स्वामी,अमात्य, सुह्रद्, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना-इस सात अंगों को सात प्रकृतियां कहते है।
- ↑ संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय- ये छ: गुण हैं। इनमें शत्रु से मेल रखना संधि, उससे लड़ाई छेड़ना विग्रह, आक्रमण करना यान, अवसर की प्रतीक्षा में बैठे रहना आसन, दुरंगी नीति बर्तना द्वैधीभाव और अपने से बलवान् राजा की शरण लेना समाश्रय कहलाता।