महाभारत आदि पर्व अध्याय 201 श्लोक 15-25
एकाधिकद्विशततम (201) अध्याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व )
इसके लिये तुम्हें तभी तक अवसर है, जब तक कि वृष्णिकुलनन्दन श्रीकृष्ण यदुवंशियों की सेना साथ लिये पाण्डवों को राज्य दिलाने के उद्देश्य से पाञ्चाल राज के घर पर नहीं आ जाते । पाण्डवों के लिये श्रीकृष्ण की ओर से धन-रत्न, भांति-भांति के भोग तथा सारा राज्य- कुछ भी अदेय नहीं है। महात्मा भरत ने पराक्रम से ही यह पृथ्वी प्राप्त की। इन्द्र ने पराक्रम से ही तीनों लोकों पर विजय पायी। राजन् ! क्षत्रिय के लिये पराक्रम की ही प्रशंसा की जाती है। नृपश्रेष्ठ ! पराक्रम करना ही शूरवीरों का स्वधर्म है।। राजन् ! हम लोग विशाल चतुरंगिणी सेना के द्वारा राजा द्रुपद को कुचलकर शीघ्र ही यहां पाण्डवों को कैद कर लायें।। न साम से, न दान से और न भेद की नीति से पाण्डवों को वश में किया जा सकता है। अत: उन्हें पराक्रम से ही नष्ट करो। पराक्रम से पाण्डवों को जीतकर इस सारी पृथ्वी का राज्य भोगो। नरेश्वर ! इसके सिवा दूसरा कोई कार्यसिद्धि का उपाय मैं नहीं देखता। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! कर्ण की बात सुनकर प्रतापी धृष्टद्युम्न ने उनकी बड़ी सराहना की और तदनन्तर इस प्रकार कहा-‘कर्ण ! तुम परम बुद्धिमान्, अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता और सूत कुल को आनन्दित करने वाले हो। ऐसा पराक्रम युक्त वचन तुम्हारे ही योग्य है।‘परंतु मेरा विचार है कि भीष्म, द्रोण, विदुर और तुम दोनों एक साथ बैठकर पुन: विचार कर लो तथा कोई ऐसी बात सोच निकालो, जो भविष्य में भी हमें सुख देनेवाली हो’। महाराज ! तदनन्तर महायशस्वी धृतराष्ट्र ने भीष्म, द्रोण आदि सम्पूर्ण मन्त्रियों को बुलवाकर उनके साथ उस समय विचार आरम्भ किया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत विदुरागमन- राज्यलम्भेपर्व में धृतराष्ट्र मन्त्रणा सम्बन्धी दो सौ पहला अध्याय पूरा हुआ।
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