महाभारत आदि पर्व अध्याय 206 श्लोक 51-52
षडधिकद्विशततम (206) अध्याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व )
इन्द्र के समान शक्तिशाली और महान् धनुर्धर पांचों पाण्डवों के द्वारा वह श्रेष्ठ इन्द्रप्रस्थ नगर नागों से युक्त भोगवती पुरी की भांति सुशोभित होने लगा। तदनन्तर विश्वकर्मा का पूजन करके राजा ने उन्हें विदा कर दिया। फिर व्यासजी को सम्मानपूर्वक विदा देकर राजा युधिष्ठिर ने जाने के लिये उद्यत हुए भगवान् श्रीकृष्ण से कहा। युधिष्ठिर बोले- निष्पाप वृष्णिनन्दन ! आपकी ही कृपा से मैंने राज्य प्राप्त किया है। वीर ! आपके ही प्रसाद से यह अत्यन्त दुर्गम एवं निर्जन प्रदेश आज धन धान्य से सम्पन्न राष्ट्र बन गया। महामते ! आपकी ही दया से हम लोग राज्य सिंहासन पर आसीन हुए हैं। माधव ! अन्तकाल में भी आप ही हम पाण्डवों की गति हैं। आप ही हमारे माता-पिता और इष्टदेव हैं। हम पाण्डु को नहीं जानते। अनघ ! आप स्वयं समझकर जो करने के योग्य कार्य हो, वह हमसे करायें। पाण्डवों के लिये जो अभीष्ट हो, उसी कार्य को करने के लिये आप हमें अनुमति दें। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- महाभाग ! आपको अपने ही प्रभाव से ही धर्म के फलस्वरुप राज्य प्राप्त हुआ है। प्रभो ! जो राज्य आपके बाप-दादों का ही है, वह आपको कैसे नहीं मिलता। धृतराष्ट्र के पुत्र दुराचारी हैं। वे पाण्डवों का क्या कर लेंगे ? आप इच्छानुसार पृथ्वी का पालन कीजिए और सदा धर्म मर्यादा की धुरी धारण करिये। कुरुनन्दन ! संक्षेप से आपके लिये धर्म का उपदेश इतना ही है कि ब्राह्मणों की सेवा करिये। आज ही बड़ी जल्दी में आपके यहां श्रीनारदजी पधारेंगे उनका आदर-सत्कार करके उनकी बाते सुनिये और उनकी आज्ञा का पालन कीजिये। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! यों कहकर भगवान् श्रीकृष्ण कुन्ती देवी के पास गये और उन्हें प्रणाम करके मधुर वाणी में बोले- ‘बुआजी ! नमस्कार ! अब मै जाऊंगा (आज्ञा दीजिये) !’ कुन्ती बोली- केशव ! लाक्षा गृह में जाकर मैंने जो कष्ट भोगा है, उसे मेरे पूज्य पिता कुन्तिभोज भी नहीं जान सके हैं। गोविन्द ! तुम्हारी सहायता से ही मैं इस महान् दु:ख-समुद्र से पार हुई हूं। प्रभो ! तुम अनाथों के, विशेषत: दीन दुखियों के नाथ (रक्षक) हो। तुम्हारे दर्शन से हमारे सारे दु:ख दूर हो जाते हैं। महामते ! इन पाण्डवों को सदा याद रखना। ये तुम्हारे शुभ चिन्तन से ही जीवन धारण करते हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण ने कुन्ती से यह कहकर कि मैं आपकी आज्ञा का पालन करुंगा; प्रणाम करके, विदा ले सेवकों सहित वहां से जाने का विचार किया। राजन् ! इस प्रकार उस पुरी को बसाकर बलरामजी के साथ वीरवर श्रीकृष्ण पाण्डवों की अनुमति ले उस समय द्वारकापुरी को चले गये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत विदुरागमन राज्यलम्भपर्व में नगर निर्माण विषयक दौ सौ छठा अध्याय पूरा हुआ।
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