महाभारत आदि पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-16

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विंश (20) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: विंश अध्‍याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकादि महर्षियों ! जिस प्रकार अमृत मथकर निकाला गया, वह सब प्रसंग मैंने आप लोगों से कह सुनाया। उस अमृत मन्थन के समय ही वह अनुपम वेगशाली सुन्दर अश्व उत्पन्न हुआ था, जिसे देखकर कद्रू ने विनता से कहा--‘भद्रे ! शीघ्र बताओं तो, यह उच्चैःश्रवा घोड़ा किस रंग का है?’। विनता बोली—शुभे ! यह अश्वराज श्वेत वर्ण का ही है। तुम इसे कैसा समझती हो, तुम भी इसका रंग बताओ, तब हम दोनों इसके लिये बाजी लगयेंगी। कद्रू ने कहा—पवित्र मुस्कान वाली बहिन ! इस घोड़े का ( रंग तो अवश्य सफेद है) किंतु इसकी पूँछ को मैं काले रंग की ही मानती हूँ। भामिनि ! आओ, दासी होने की शर्त रखकर मेरे साथ बाजी लगाओ (यदि तुम्हारी बात ठीक हुई तो मैं दासी बनकर रहूँगी; अन्यथा तुम्हें मेरी दासी बनना होगा)। उग्रश्रवाजी कहते है—इस प्रकार वे दोनों बहिनें आपस में एक दूसरे की दासी होने की शर्त रखकर अपने-अपने घर चली गयीं और उन्होंने यह निश्चय किया कि कल आकर घोड़े को देखेंगी। कद्रू कुटिलता एवं छल से काम लेना चाहती थी। उसने अपने सहस्त्र पुत्रों को इस समय आज्ञा दी कि तुम काले रंग के बाल बनकर शीघ्र उस घोड़े की पूँछ में लग जाओ, जिससे मुझे दासी न होना पडे़। उस समय जिन सर्पो ने उसकी आज्ञा न मानी उन्हें उसने शाप दिया कि,‘जाओ, पाण्डववंशी बुद्धिमान राजर्षि जनमेजय के सर्पयज्ञ का आरम्भ होने पर उसमें प्रज्वलित अग्नि तुम्हें जलाकर भस्म कर देगी।' इस शाप को स्वयं ब्रह्माजी ने सुना। यह दैव संयोग की बात है कि सर्पों को उनकी माता कद्रू की ओर से ही अत्यन्त कठोर शाप प्राप्त हो गया। सम्पूर्ण देवताओं सहित ब्रह्माजी ने सर्पों की संख्या बढ़ती देख प्रजा के हित की इच्छा से कद्रू की उस बात का अनुमोदन ही किया। ‘ये महाबली दुःसह पराक्रम तथा प्रचण्ड विष से युक्त हैं। अपने तीखे विष के कारण ये सदा दूसरों को पीड़ा देने के लिये दौड़ते-फिरते हैं। अतः समस्त प्राणियों के हित की दृष्टि से इन्हें शाप देकर माता कद्रू ने उचित ही किया है। जो सदा दूसरे प्राणियों को हानि पहुँचाते रहते हैं, उनके ऊपर दैव के द्वारा ही प्राणनाशक दण्ड आ पड़ता है।’ ऐसी बात कहकर ब्रह्माजी ने कद्रू की प्रशंसा की और कश्यपजी को बुलाकर यह बात कही—‘अनघ ! तुम्हारे द्वारा जो ये लोगों को डँसने वाले सर्प उत्पन्न हो गये हैं, इनके शरीर बहुत विशाल और विष बड़े भयंकर है।' परंतप ! इन्हें इनकी माता ने शाप दे दिया है, इसके कारण तुम किसी तरह भी उसपर क्रोध न करना।' तात ! यज्ञ में सर्पों का नाश होने वाला है, यह पुराणवृत्तान्त तुम्हारी दृष्टि में भी है ही।’ ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने प्रजापति कश्यप को प्रसन्न करके उन महात्माओं सर्पों को विष उतारने वाली विद्या प्रदान की। (द्विज श्रेष्ठ ! इस प्रकार माता कद्रू ने जब नागों को शाप दिया, तब उस शाप से उद्विग्न हो भुजंग प्रवर कर्कोटक ने परम प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपनी माता से कहा--‘मा ! तुम धैर्य रखो। मैं काले रंग का बाल बनकर उस श्रेष्ठ अश्व के शरीर में प्रविष्ट हो अपने-आपको ही इसकी काली पूँछ के रूप में दिखाऊँगा।’ यह सुनकर यशस्विनी कद्रू ने पुत्र को उत्तर दिया--‘बेटा ! ऐसा ही होना चाहिये)


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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