महाभारत आदि पर्व अध्याय 210 श्लोक 1-23
दशाधिकद्विशततम (210) अध्याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व )
तिलोत्तमा की उत्पति, उसके रुप का आकर्षण तथा सुन्दोपसुन्द को मोहित करने के लिये उसका प्रस्थान
नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! तदनन्तर सम्पूर्ण देवर्षि और सिद्ध-महर्षि वह महान् हत्या काण्ड देखकर बहुत दुखी हुए। उन्होंने अपने मन, इन्द्रिय समुदाय तथा क्रोध को जीत लिया था। फिर भी सम्पूर्ण जगत् पर दया करके वे ब्रह्माजी के धाम में गये। वहां पहुंचकर उन्होंने ब्रह्माजी को देवताओं, सिद्धों और महषिर्यों से सब ओर घिरे हुए बैठे देखा। वहां भगवान महादेव, वायु सहित, अग्निदेव, चन्द्रमा, सूर्य, इन्द्र, ब्रह्मपुत्र महर्षि, वैखानस (वनवासी), बालखिल्य, वानप्रस्थ, मरीचिप, अजन्मा, अविमूढ, तथा तेजोगर्भ आदि नाना प्रकार के तपस्वी मुनि ब्रह्माजी के पास आये थे। उन सभी महर्षियों ने निकट जाकर दीनभाव से ब्रह्माजी से सुन्द-उपसुन्द के सारे क्रुर कर्मो का वृत्तान्त कह सुनाया। दैत्यों ने जिस प्रकार लूट-पाट की, जैसे-जैसे और जिस क्रम से लोगों की हत्याएं कीं, वह सब समाचार पूर्ण रुप से ब्रह्माजी को बताया। तब सम्पूर्ण देवताओं और महर्षियों ने भी इस बात को लेकर ब्रह्माजी को प्रेरणा की। ब्रह्माजी ने उन सबकी बातें सुनकर दो घड़ी तक कुछ विचार किया। फिर उन दोनों के वध के लिये कर्तव्य का निश्चय करके विश्वकर्मा को बुलाया। उनको आया देखकर महातपस्वी ब्रह्माजी ने यह आज्ञादी कि तुम एक तरुणी स्त्री के शरीर की रचना करो, जो सबका मन लुभा लेनेवाली हो । ब्रह्माजीकी आज्ञा को शिरोधार्य करके विश्वकर्मा ने उन्हें प्रणाम किया और खूब सोच-विचार कर एक दिव्य युवती का निर्माण किया। तीनों लोकों में जो कुछ भी चर और अचर दर्शनीय पदार्थ था, सर्वज्ञ विश्वकर्मा ने उस सबके सारांश का उस सुन्दरी के शरीर में संग्रह किया। उन्होंने उस युवती के अंगों में करोड़ों रत्नों का समावेश किया और इस प्रकार रत्न राशि मयी उस देवरुपिणी रमणी का निर्माण किया। विश्वकर्मा द्वारा बड़े प्रयत्न से बनायी हुयी वह दिव्य युवती अपने रुप सौन्दर्य के कारण तीनों लोकों की स्त्रियों में अनुपम थी। उसके शरीर में कहीं तिलभर भी ऐसी जगह नहीं थीं, जहां की रुप सम्पत्ति को देखने के लिये लगी हुई दर्शकों की दृष्टि जम न जाती हो। वह मूर्तिमान काम रुपिणी लक्ष्मी की भांति समस्त प्राणियों के नेत्रों और मन को हर लेती थी। उत्तम रत्नों का तिल-तिलभर अंश लेकर उसके अंगो का निर्माण हुआ था, इसलिये ब्रह्माजी ने उसका नाम ‘तिलोत्तमा’ रख दिया। तदनन्तर तिलोत्तमा ब्रह्माजी को नमस्कार करके हाथ जोड़कर बोली- ‘प्रजापते ! मुझ पर किस कार्य का भार रखा गया है? जिसके लिये आज मेरे शरीर का निर्माण किया गया है’। ब्रह्माजी ने कहा-भद्रे तिलोतमे ! तु सुन्द और उपसुन्द नामक असुरों के पास जा और अपने अत्यन्त कमनीय रुप के द्वारा उनको लुभा। तुझे देखते ही तेरे लिये-तेरी रुप सम्पत्ति के लिये उन दोनों दैत्यों में परस्पर विरोध हो जाय, ऐसा प्रयत्न कर।। नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! तब तिलोत्तमाने वैसा ही करने की प्रतिज्ञा करके ब्रह्माजी के चरणों में प्रणाम किया। फिर वह देवमण्डली की परिक्रमा करने लगी। ब्रह्माजी के दक्षिण भाग में भगवान् महेश्वर पूर्वाभिमुख होकर बैठे थे तथा ॠषि मुनि ब्रह्माजी के चारो ओर बैठे थे।
« पीछे | आगे » |