महाभारत आदि पर्व अध्याय 212 श्लोक 19-35
द्वादशाधिकशततम (212) अध्याय: आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व )
‘राजा की उपस्थिति में घर के भीतर प्रवेश करने पर मुझको वन में निवास करना होगा। इसमें महाराज के तिरस्कार के सिवा और सारी बातें तुच्छ होने के कारण उपेक्षणीय हैं। ‘चाहे राजा के तिरस्कार से मुझे नियम भंग का महान् दोष प्राप्त हो अथवा वन में ही मेरी मृत्यु हो जाय तथापि शरीर को नष्ट करके भी गौ-ब्राह्मण-रक्षा रुप धर्म का पालन ही श्रेष्ठ है’। जनमेजय ! ऐसा निश्चय करके कुन्ती कुमार धनजय से राजा से पूछकर घर के भीतर प्रवेश करके धनुष ले लिया और (बाहर आकर) प्रसन्नता पूर्वक ब्राह्मण से कहा- ‘विप्रवर ! शीघ्र आइये । जब तक दूसरों के धन हड़पने की इच्छावाले वे क्षुद्र चोर दूर नहीं चले जाते,तभी तक हम दोनों एक साथ वहां पहुंच जायं। मैं अभी आपका गो धन चोरों के हाथ से छीनकर आपको लौटा देता हूं’। ऐसा कहकर महाबाहु अर्जुन ने धनुष और कवच धारण करके ध्वजायुक्त रथ पर आरुढ़ हो उन वीरों का पीछा किया और बाणों से चोरों का विनाश करके सारा गो धन जीत लिया। फिर ब्राह्मण को वह सारा गो धन देकर प्रसन्न करके अनुपम यश के भागी हो पाण्डुपुत्र स्वयसाची वीर धनंजय पुन: अपने नगर में लौट आये। वहां आकर उन्होंने समस्त गुरुजनों को प्रणाम किया और उन सभी गुरुजनों ने उनकी बड़ी प्रशंसा एवं अभिनन्दन किया। इसके बाद अर्जुन ने धर्मराज से कहा-‘प्रभो ! मैंने आपको द्रौपदी के साथ देखकर पहले के निश्चित नियम को भंग किया है; अत: आप इसके लिये मुझे प्रायश्चित करने की आज्ञा दिजिये। मैं वनवास के लिये जाऊंगा; क्योंकि हम लोगों में वह शर्त हो चुकी है’। अर्जुन के मुख से सहसा यह अप्रिय वचन सुनकर धर्मराज शोकातुर होकर लड़खड़ाती हुई वाणी में बोले-‘ऐसा क्यों करते हो?’ इसके बाद राजा युधिष्ठिर धर्म मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले अपने भाई गुडाकेश धनंजय से फिर दान होकर बोले- ‘अनघ ! यदि तुम मुझको प्रमाण मानते हो, तो मेरी यह बात सुनो-‘वीरवर ! तुमने घर के भीतर प्रवेश करके तो मेरा प्रिय कार्य किया है, अत: उसके लिये मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं; क्योंकि मेरे हृदय में यह अप्रिय नहीं है। ‘यदि बड़ा भार्इ घर में स्त्री के साथ बैठा हो, तो छोटेभाई का वहां जाना दोष की बात नहीं है; परंतु छोटे भार्इ घर में हो, तो बड़े भाई का वहां जाना उसके धर्म का नाश करनेवाला है।‘अत: महाबाहो ! मेरी बात मानो; वनवास का विचार छोड़ दी। न तो तुम्हारे धर्म का लोप हुआ है और न तुम्हारे द्वारा मेरा तिरस्कार ही किया गया है’। अर्जुन बोले-प्रभो ! मैने आपके ही मुख से सुना है कि धर्माचरण मे कभी बहानेबाजी नहीं करनी चाहिये। अत: मैं सत्य की शपथ खाकर और शस्त्र छूकर कहता हूं कि सत्य से विचलित नहीं होउंगा। यशोवर्धन ! मुझे आप वनवास के लिये आज्ञा दें, मेरा यह निश्चय है कि मैं आपकी आज्ञाके बिना कोई कार्य नहीं करुंगा। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! राजा की आज्ञा लेकर अर्जुन ने वनवास की दीक्षा ली और वन में बारह वर्षो तक रहने के लिये वहां से चल पड़े।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत अर्जुन वनवास पर्व में अर्जुन तीर्थ यात्राविषयक दो सौ बारहवां अध्याय पूरा हुआ।
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