महाभारत आदि पर्व अध्याय 222 श्लोक 59-80

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द्वाविंशत्यधिकद्विशततम (222) अध्‍याय: आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्वाविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 59-80 का हिन्दी अनुवाद

तदनन्तर यथासमय विधिपूर्वक उन महामना नरेश का यज्ञ आरम्भ हुआ। शास्त्र में जैसा बताया गया है, उसी ढंग से सब कार्य हुआ। उस यज्ञ में बहुत सी दक्षिणा दी गयी। उन महामना नरेश का वह यज्ञ पूरा होने पर उसमें जो महातेजस्वी सदस्य और ऋत्विज दीक्षित हुए थे, वे सब दुर्वासा जी की आज्ञा ले अपने-अपने स्थान को चले गये। राजन् ! वे महान् सौभाग्यशाली नरेश भी वेदों के पारंगत महाभाग ब्राह्मणों द्वारा सम्मानित हो उस समय अपनी राजधानी में गये। उस समय वन्दीजनों ने उनका यश गाया और पुरवासियों ने अभिनन्दन किया। नृपश्रेष्ठ राजर्षि श्वेतकि का आचार-व्यवहार ऐसा ही था। वे दीर्घकाल के पश्चात् अपने यज्ञ के सम्पूर्ण सदस्यों तथा ऋत्विजों सहित देवताओं से प्रशंसित हो स्वर्गलोक में गये। उनके यज्ञ में अग्नि ने लगातार बारह वर्षों तक घृतपान किया था। उस अद्वितिय यज्ञ में निरन्तर घी की अविच्छिन्न धाराओं से अग्निदेव को बड़ी तृप्ति प्राप्त हुई। अब उन्हें फिर दूसरे किसी का हविष्य ग्रहण करने की इच्छा नहीं रही। उनका रंग सफेद हो गया, कान्ति फीकी पड़ गयी तथा वे पहले की भाँति प्रकाशित नहीं होते थे। तब भगवान् अग्निदेव के उदर में विकार हो गया। वे तेज से हीन हो ग्लानि को प्राप्त होने लगे। अपने को तेज से हीन देख अग्निदेव ब्रह्माजी के लोकपूजित पुण्यधाम में गये। वहाँ बैठे हुए ब्रह्माजी से वे यह वचन बोले - ‘भगवन् ! राजा श्वेतकि ने अपने यज्ञ में मुझे परम संतुष्ट कर दिया।
‘परंतु मुझे अत्यन्त अरूचि हो गयी है, जिस मैं किसी प्रकार दूर नहीं कर पाता। जगत्पते ! उस अरूचि के कारण मैं तेज और बल से हीन होता जा रह हूँ। अतः मैं चाहता हूँ कि आपकी कृपा से मैं स्वस्थ हो जाऊँ; मेरी स्वाभाविक स्थिति सुदृढ़ बनी रहे’। अग्निदेव की यह बात सुनकर सम्पूर्ण जगत् के सृष्टा भगवान् ब्रह्माजी हव्यवाहन अग्नि से हँसते हुए से इस प्रकार बोले - ‘महाभाग ! तुमने बारह वर्षों तक वसुधारा की आहुति के रूप में प्राप्त हुई घृतधारा का उपभोग किया है। इसीलिये तुम्हें ग्लानि प्राप्त हुई है। हव्यवाहन ! तेज से हीन होने के कारण तुम्हें सहसा अपने मन में ग्लानि नहीं आने देनी चाहिये। वह्ये ! तुम फिर पूर्ववत् स्वरूप हो जाआगे। मैं समय पाकर तुम्हारी अरूचि नष्ट कर दूँगा। ‘पूर्वकाल में देवताओं के आदेश से तुमने दैत्यों के जिस अत्यन्त घोर निवास स्थान खाण्डववन को जलाया था, वहाँ इस समय सब प्रकार के जीव-जन्तु आकर निवास करते है। विभावसो ! उन्हीं के मेद से तृप्त होकर तुम स्वस्थ हो सकोगे। ’उस वन को जलाने के लिये तुम शीघ्र ही जाओ। तभी इस ग्लानि से छुटकारा पा सकोगे।’ परमेष्ठी ब्रह्माजी के मुख से निकली हुइ्र यह बात सुनकर अग्निदेव बडे़ वेग से वहाँ दौडे़ गये। खाण्डववन में पहुँचकर उत्तम बल का आश्रय ले वायु का सहारा पाकर कुपित अग्निदेव सहजा प्रज्वलित हो उठे। खाण्डव वन को जलते देख वहाँ रहने वाले प्राणियों ने उस आग को बुझाने के लिये बड़ा यत्न किया। सैंकड़ों और हजारो की संख्या में हाथी अपनी सूँडों में जल लेकर शीघ्रतापूर्वक दौडे़ आते और क्रोधपूर्वक उतावली के साथ आग पर उस जल को उडे़ल दिया करते थे। अनेक सिरवाले नाग भी क्रोध से मूर्छित हो अपने मस्तकों द्वारा अग्नि के समीप शीघ्रतापूर्वक जल की धारा बरसाने लगे। भरतश्रेष्ठ! इसी प्रकार दूसरे-दूसरे जीवों ने भी अनेक प्रकार के प्रहारों (धूल झोंकने आदि) तथा उद्यमों (जल छिड़कने आदि) के द्वारा शीघ्रतापूर्वक उस आग को बुझा दिया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत खाण्डवदाहपर्व में अग्निपराभव विषयक दो सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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