महाभारत आदि पर्व अध्याय 224 श्लोक 16-37

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चतुर्विंशत्यधिकद्विशततम (224) अध्‍याय: आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: चतुर्विंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 16-37 का हिन्दी अनुवाद

उस रथ के शिखर पर बैठा हुआ वह वानर ऐसा जान पड़ता था, मानो शत्रुओं को भस्म कर डालना चाहता हो। उस ध्वज में और भी नाना प्रकार के बड़े भयंकर प्राणी रहते थे, जिनकी आवाज सुनकर शत्रु सैनिकों के होश उड़ जाते थे। वह श्रेष्ठ रथ भाँति-भाँति की पताकाओं से सुशोभित हो रहा था। अर्जुन ने कमर कस ली, कवच और तलवार बाँध ली, दस्ताने पहन लिये तथा रथ की परिक्रमा और देवताओं को प्रणाम करके वे उस पर आरूढ़ हुए, ठीक वैसे ही, जैसे कोई पुण्यात्मा विमान पर बैठता है। तदनन्तर पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने जिसका निर्माण किया था, उस दिव्य एवं श्रेष्ठ गाण्डीव धनुष को हाथ में लेकर अर्जुन बडे़ प्रसन्न हुए। पराक्रमी धनंजय ने अग्निदेव को सामने रखकर उस धनुष को हाथ में उठाया और बल लगाकर उस पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी। महाबली पाण्डुकुमार ने उस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ाते समय जिन लोगों ने उसकी टंकार सुनी, उसका हृदय व्यथित हो उठा। वह रथ, धनुष तथा अक्षय तरकस पाकर कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त प्रसन्न हो अग्नि की सहायता करने में समर्थ हो गये। तदनन्तर पावक ने भगवान् श्रीकृष्ण को एक चक्र दिया, जिसका मध्यभाग वज्र के समान था। उस अग्निप्रदत्त प्रिय अस्त्र चक्र को पाकर भगवान् श्रीकृष्ण भी उस समय सहायता के लिये समर्थ हो गये। उनसे अग्निदेव ने कहा - ‘मधुसूदन ! इस चक्र के द्वारा आप युद्ध में अमानव प्राणियों को भी जीत लेंगे, इसमें संशय नहीं है। इसके होने से आप युद्ध में मनुष्यों, देवताओं, राक्षसों, पिशाचों, दैत्यों और नागों से भी अधिक शक्तिशाली होंगे तथा इन सबका संहार करने में भी निःसंदेह सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होंगे। ‘माधव ! युद्ध में आप जब-जब इसे शत्रुओं पर चलायेंगे, तब-तब यह उन्हें मारकर और स्वयं किसी अस्त्र से प्रतिहम न होकर पुनः आपके हाथ में आ जाएगा’। तत्पश्चात् भगवान् वरूण ने भी बिजली के समान कड़कड़ाहट पैदा करने वाली कौमोदकी नामक गदा भगवान् को भेंट की, जो दैत्यों का विनाश करने वाली और भयंकर थी। इसके बाद अस्त्रविद्या के ज्ञाता एवं शस्त्र सम्पन्न अर्जुन और श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर अग्निदेव से कहा - ‘भगवन् ! अब हम दोनों रथ और ध्वजा से युक्त हो सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरों से भी युद्ध करने में समर्थ हो गये हैं; फिर तक्षक नाग के लिये युद्ध की इच्छा रखने वाले अकेले वज्रधारी इन्द्र से युद्ध करना क्या बड़ी बात है ?’ अर्जुन बोले - अग्निदेव ! सबकी इन्द्रियों के प्रेरक ये महापराक्रमी जनार्दन जब हाथ में चक्र लेकर युद्ध में विचरेंगे, उस समय त्रिलोकी में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जिसे ये चक्र के प्रहार से भस्म न कर सकें। पावक ! मैं भी यह गाण्डीव धनुष और ये दोनों बडे़-बडे़ अखय तरकस लेकर सम्पूर्ण लोकों को युद्ध में जीत लेने का उत्साह रखता हूँ। महाप्रभो ! अब आप इस सम्पूर्ण वन को चारों ओर से घेरकर आज ही इच्छानुसार जलाइये । हम आपकी सहायता के लिये तैयार हैं।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! श्रीकृष्ण और अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान् अग्नि ने तेजोमय रूप धारण करके खाण्डववन को सब ओर से जलाना आरम्भ कर दिया। सात ज्वालामयी जिह्वाओं वाले अग्निदेव खाण्डववन को सब ओर से घेरकर महाप्रलय का सा दृश्य उपस्थित करते हुए जलाने लगे। भरतश्रेष्ठ ! उस वन को चारों ओर से अपनी लपटों में लपेटकर और उसके भीतरी भाग में भी व्याप्त होकर अग्निदेव मेघ की गर्जना के समान गम्भीर घोष करते हुए समस्त प्राणियों को कँपाने लगे। भारत ! उस जलते हुए खाण्डववन का स्वरूप ऐसा जान पड़ता था, मानो सूर्य की किरणो से व्याप्त पर्वतराज मेरू का सम्पूर्ण कलेवर उद्दीत हो उठा हो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत खाण्डवदाहपर्व में गाण्डीवादि दान विषयक दो सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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