महाभारत आदि पर्व अध्याय 231 श्लोक 1-15
एकत्रिंशदधिकद्विशततम (231) अध्याय: आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)
शांर्गकों के स्तवन से प्रसन्न होकर अग्निदेव का उन्हें अभय देना
ज्रितारि बोला - बुद्धिमान् पुरूष संकटकाल आने के पहले ही सजग हो जाता है, वह संकट का समय आ जाने पर कभी व्यथित नहीं होता। जो मूढ़चित्त जीव आने वाले संकट को नहीं जानता, वह संकट के समय व्यथित होने के कारण महान् कल्याण से वञ्चित रह जाता है ।।२।। सारिसृक्क ने कहा - भैया ! तुम धीर और बुद्धिमान् हो और हमारे लिये यह प्राणसंकट का समय है (अतः इससे तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो); क्योंकि बहुतों में कोई एक ही बुद्धिमान् और शूरवीर होता है, इसमें संशय नहीं है । स्तम्बमित्र बोला - बड़ा भाई पिता के तुल्य है, बड़ा भाई ही संकट से छुड़ाता है। यदि बड़ा भाई ही आने वाले भय और उससे बचने के उपाय को न जाने तो छोटा भाई क्या करेगा ?
द्रोण ने कहा - यह जाज्वल्यमान अग्नि हमारे घोंसले की और तीव्र वेग से आ रहा है। इसके मुख में सात जिह्वाएँ हैं और यह क्रूर अग्नि समस्त वृक्षों को चाटता हुआ सब ओर फैल रहा है।
वैशम्पायन जी कहते है - राजन् ! इस प्रकार आपस में बातें करते मन्दपाल के वे पुत्र एकाग्रचित्त हो अग्निदेव की स्तुति करने लगे; वह स्तुति सुनो।
जरितारि ने कहा - अग्निदेव ! आप वायु के आत्मस्वरूप और वनस्पतियों के शरीर हैं। तृण लता आदि की योनि पृथ्वी और जल तुम्हारे वीर्य हैं, जल की योनि भी तुम्हीं हो। महावीर्य ! आपकी ज्वालाएँ सूर्य की किरणों के समान ऊपर-नीचे, आगे-पीछे तथा अगल-बगल सब ओर फैल रही है।
सारिसृक्क बोला - धूममयी ध्वजा से सुशोभित अग्निदेव ! हमारी माता चली गयी, पिता का भी हमें पता नहीं है और हमारे अभी पंख तक नहीं निकले हैं। हमारा आपके सिवा दूसरा कोई रक्षक नहीं है; अतः आप ही हम बालकों की रक्षा करें। अग्ने ! आपका जो कल्याणमय स्वरूप है तथा आपकी जो सात ज्वालाएँ हैं उन सबके द्वारा आप शरण में आने की इच्छा वाले हम आर्त प्राणियों की रक्षा कीजिये। जातवेदा ! एकमात्र आप ही सर्वत्र तपते हैं। देव ! सूर्य की किरणों में तपने वाले पुरूष भी आपसे भिन्न नहीं है। हव्यवाहन ! हम बालक ऋषि हैं; हमारी रक्षा कीजिये। हमसे दूर चले जाइये।
स्तम्बमित्र ने कहा - अग्ने ! एकमात्र आप ही सबकुछ हैं, यह सम्पूर्ण जगत् आप में ही प्रतिष्ठित है। आप ही प्राणियों का पालन और जगत् को धारण करते हैं। आप ही अग्नि, आप ही हव्य का वहन करने वाले और आप ही उत्तम हविष्य है। मनीषी पुरूष आपको ही अनेक और एकरूप में स्थित जानते हैं। हव्यवाह ! आप इन तीनों लोकों की सृष्टि करके प्रलयकाल आने पर पुनः प्रज्वलित हो इन सबका संहार कर देते हैं। अतः अग्ने ! आप सम्पूर्ण जगत् के उत्पत्ति स्थान हैं और आप ही इसके लयस्थान भी हैं। द्रोण बोला - जगत्पते ! आप ही शरीर के भीतर रहकर प्राणियों द्वारा खाये हुए अन्न को सदा उद्दीप्त होकर पचाते हैं। सम्पूर्ण विश्व आप में ही प्रतिष्ठित है।
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