महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 143-168
द्वितीय (2) अध्याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)
जिस समय महात्मा पाण्डव वनवास के लिये यात्रा कर रहे थे, उस समय बहुत से पुरवासी लोग बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर के पीछे-पीछे चलने लगे। महर्षि धौम्य के उपदेश से उन्हें सूर्य भगवान की कृपा प्राप्त हुई और अक्षय अन्न का पात्र मिला। उधर विदुरजी धृरराष्ट्र को हितकारी उपदेश कर रहे थे, परंतु धृतराष्ट्र ने उनका परित्याग कर दिया। धृतराष्ट्र के परित्याग पर विदुरजी पाण्डवों के पास चले गये और फिर धृतराष्ट्र का आदेश प्राप्त होने पर उनके पास लौट आये। धृतराष्ट्र नन्दन दुर्मति दुर्योधन ने कर्ण के प्रोत्साहन से वनवासी पाण्डवों को मार डालने का विचार किया। दुर्योधन के इस दूषित भाव को जानकर महर्षि व्यास झटपट यहाँ आ पहुँचे और उन्होंने दुर्योधन की यात्रा का विषेध कर दिया। इसी प्रसंग में सुरभि का आख्यान भी है। मैत्रेय ऋषि ने आकर राजा धृतराष्ट्र को उपदेश किया और उन्होंने ही राजा दुर्योधन को शाप दे दिया। इसी पर्व में यह कथा हैं कि युद्ध में भीमसेन ने किर्मीर को मार डाला। पाण्डवों के पास वृष्णिवंशी और पांचाल आये। पाण्डवों ने उन सबके साथ वार्तालाप किया। द्रौपदी श्रीकृष्ण ने दुःखार्त द्रौपदी को आश्वासन दिया। यह सब कथा वनपर्व में है। इसी पर्व मे महर्षि व्यास ने सौभवध की कथा कही है। श्रीकृष्ण सुभद्रा को पुत्र सहित द्वारका में ले गये। धृष्टद्यृम्न द्रौपदी के पुत्रों को अपने साथ लिवा ले गये। तदनन्तर पाण्डवों ने परम रमणीय द्वैतवन में प्रवेश किया। इसी पर्व में युधिष्ठिर एवं द्रौपदी का संवाद तथा युधिष्ठिर और भीमसेन के संवाद का भली भाँति वर्णन किया गया है। महर्षि व्यास पाण्डवों के पास आये और उन्होंने राजा युधिष्ठिर को प्रतिस्मृति नामक मन्त्र विद्या का उपदेश दिया। व्यास जी के चले जाने पर पाण्डवों ने काम्यकवन की यात्रा की। इसके बाद अभिततेजस्वी अर्जुन अस्त्र प्राप्त करने के लिये अपने भाईयों से अलग चले गये। वहीं किरात-वेशधारी महादेवजी के साथ अर्जुन का युद्ध हुआ, लोकपालों के दर्शन हुए और अस्त्र की प्राप्ति हुई। इसके बाद अर्जुन अस्त्र के लिये इन्द्रलोक में गये यह सुनकर धृतराष्ट्र को बड़ी चिन्ता हुई। इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर को शुद्धहृदय महर्षि बृहदश्व का दर्शन हुआ। युधिष्ठिर ने आर्त होकर उन्हें अपनी दुःखगाथा सुनायी और विलाप किया। इसी प्रसंग में नलोपाख्यान आता है, जिसमें धर्मानिष्ठा का अनुपम आदर्श है और जिसे पढ़-सुनकर हृदय में करूणा की धारा बहने लगती है। दमयन्ती का द्दढ़ धैर्य और नल का चरित्र यहीं पढ़ने को मिलते हैं। उन्हीं महर्षि से पाण्डवों को अक्ष-हृदय (जूए के रहस्य) की प्राप्ति हुई। यहीं स्वर्ग से महर्षि लोमश पाण्डवों के पास पधारे। लोमश ने ही वनवासी महात्मा पाण्डवों को यह बात बतलायी कि अर्जुन स्वर्ग में किस प्रकार अस्त्र विद्या सीख रहे हैं। इसी पर्व में अर्जुन का संदेश पाकर पाण्डवों ने तीर्थ यात्रा की। उन्हें तीर्थयात्रा का फल प्राप्त हुआ और कौन से तीर्थ कितने पुण्यप्रद होते हैं- इस बात का वर्णन हुआ है। इसके बाद महर्षि नारद ने पुलस्त्य तीर्थ की यात्रा करने की प्रेरणा दी और महात्मा पाण्डवों ने यहां की यात्रा की। यहीं इन्द्र के द्वारा कर्ण को कुण्डलों से वंचित करने का तथा राजा गय के यज्ञवैभव का वर्णन किया गया हैं। इसके बाद अगस्त्व चरित्र है, जिसमें उनके बातापिभक्षण तथा संतान के लिये लोपामुद्रा के साथ समागम का वर्णन है। इसके पश्चात कौमार ब्रह्मचारी ऋष्यश्रृंग का चरित्र है। फिर परम तेजस्वी जमदग्निनन्दन परशुराम का चरित्र है।
« पीछे | आगे » |