महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 137-153
तृतीय (3) अध्याय: आदि पर्व (पौष्य पर्व)
ऐरावत नाग के सिवा दूसरा कौन है, जो सूर्यदेव की प्रचण्ड किरणों के सैन्य में विचरने की इच्छा कर सकता है? ऐरावत के भाई धृतराष्ट्र जब सूर्य देव के साथ प्रकाशित होते और चलते हैं, उस समय अट्ठाईस हजार आठ सर्प सूर्य के घोड़ों की बागडोर बनकर जाते हैं। जो इसके साथ जाते हैं और जो दूर के मार्ग पर जा पहुंचे हैं, ऐरावत के उन सभी छोटे बन्धुओं को मैंने नमस्कार किया है। जिनका निवास सदा कुरूक्षेत्र और खाण्डव वन में रहा है, उन नागराज तक्षक की मैं कुण्डलों के लिये स्तुति करता हूँ। तक्षक और अश्वसेन- ये दोनों नाग सदा साथ विचरने वाले हैं। ये दोनों कुरूक्षेत्र में इक्षुमती नदी के तट पर रहा करते थे। जो तक्षक के छोटे भाई हैं, श्रुतसेन नाम से जिनकी ख्याति है तथा जो पाताललोक में नागराज की पदवी पाने के लिये सूर्यदेव की उपासना करते हुए कुरूक्षेत्र में रहे हैं, उन महात्मा को मैं सदा नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार उन श्रेष्ठ नागों की स्तुति करने पर भी जब ब्रह्मर्षि उत्तंक उन कुण्डलों को न पा सके तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। इस प्रकार नागों की स्तुति करते रहने पर जब वे उन दोनों कुण्डलों को प्राप्त न कर सके, तब उन्हें वहाँ दो स्त्रियाँ दिखायी दीं, जो सुन्दर करघे पर रखकर सूत के ताने में वस्त्र बुन रही थीं, उस ताने में उत्तंक मुनि ने काले और सफेद दो प्रकार के सूत और बारह अरोंका एक चक्र भी देखा, जिसे छः कुमार घुमा रहे थे। वहीं एक श्रेष्ठ पुरूष भी दिखायी दिये। जिनके साथ एक दर्शनीय अश्व भी था। उत्तंक ने इन मन्त्र तुल्य श्लोकों द्वारा उनकी स्तुति की। यह जो अविनाशी कालचक्र निरन्तर चल रहा है, इसके भीतर तीन सौ साठ अरे हैं, चौबीस पर्व हैं और इस चक्र को छः कुमार घुमा रहे हैं।
यह सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, ऐसी दो युवतियाँ सदा काले और सफेद तन्तुओं को इधर- उधर चलाती हुई इस वासना जलरूपी वस्त्र को बुन रही हैं तथा वे ही सम्पूर्ण भूतों और समस्त भुवनों का निरन्तर संचालन करती हैं। जो महात्मा वज्र धारण करके तीनों लोकों की रक्षा करते हैं, जिन्होंने वृत्रासुरका वध तथा नमुचि दानव का संहार किया है, जो काले रंग के दो वस्त्र पहनते और लोक में सत्य एवं असत्य का विवेक करते हैं, जल से प्रकट हुए प्राचीन वैश्वानररूप अश्व को वाहन बनाकर उस पर चढ़ते हैं तथा जो तीनों लोकों के शासक हैं, उन जगदीशवर पुरन्दर को मेरा नमस्कार है। तब वह पुरुष उत्तंक से बोला-‘ब्रह्मन ! मैं तुम्हारे इस स्तोत्र से बहुत प्रसन्न हूँ। कहो, तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूँ?’ यह सुनकर उत्तंक ने कहा-। ‘सब नाग मेरे अधीन हो जायें। उनके ऐसा कहने पर वह पुरुष पुनः उत्तंक से बोला- ‘इस घोड़े की गुदा में फूँक मारो।' यह सुनकर उत्तंक ने घोड़े की गुदा में फूँक मारी। फूँकने से घोड़े क शरीर के समस्त छिद्रो से धुएँ सहित आग की लपटें निकलने लगी। उस समय सारा नागलोक धुएँ से भर गया। फिर तो तक्षक घबरा गया और आग की ज्वाला के भय से दुखी हो दोनों कुण्डल लिये सहसा घर से निकल आया और उत्तंक से बोला-।
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