महाभारत आदि पर्व अध्याय 47 श्लोक 1-20
सप्तचत्वारिंश (47) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनक ! उस समय वासुकि ने जरत्कारू मुनि से कहा—‘द्विजश्रेष्ठ ! इस कन्या का वही नाम है, जो आपका है। यह मेरी बहिन है और आपकी ही भाँति तपस्विनी भी है। आप इसे ग्रहण करें। आपकी पत्नी का भरण-पोषण मैं करूँगा। तपोधन ! अपनी सारी शक्ति लगाकर मैं इसकी रक्षा करता रहूँगा। मुनिश्रेष्ठ ! अब तक आप ही के लिये मैंने इसकी रक्षा की है।' ऋषि ने कहा—नागराज ! मैं इसका भरण-पोषण नहीं करूँगा, मेरी वह शर्त तय हो गयी। अब दूसरी शर्त यह है कि तुम्हारी इस बहिन को कभी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जो मुझे अप्रिय लगे। यदि वह अप्रिय कार्य कर बैठेगी तो उसी समय मैं इसे त्याग दूँगा। उग्रश्रवाजी कहते हैं— नागराज ने यह शर्त स्वीकार कर ली कि ‘मैं अपनी बहिन का भरण-पोषण करूँगा।’ तब जरत्कारू मुनि वासुकि के भवन में गये। वहाँ मन्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ तपोवृद्ध महाव्रती धर्मात्मा जरत्कारू ने शास्त्रीय विधि और मन्त्रोचारण के साथ नाग कन्या का पाणिग्रहण किया। तदनन्तर महर्षियों ने प्रशंसित होते हुए वे नागराज के रमणीय भवन में, जो मन के अनुकूल था, अपनी पत्नी को लेकर गये। वहाँ बहुमूल्य बिछौनों से सजी हुई शय्या बिछी थी। जरत्कारू मुनि अपनी पत्नी के साथ उसी भवन में रहने लगे। उन साधुशिरोमणि ने वहाँ अपनी पत्नी के सामने यह शर्त रखी—‘तुम्हें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये, जो मुझे अप्रिय लगे। साथ ही कभी अप्रिय वचन भी नहीं बोलना चाहिये।' ‘तुमसे अप्रिय कार्य हो जाने पर मैं तुम्हें और तुम्हारे घर में रहना छोड़ दूँगा। मैंने जो कुछ कहा है, मेरे इस वचन को दृढ़तापूर्वक धारण कर लों।' यह सुनकर नागराज की बहिन अत्यन्त उद्विग्न हो गयी और उस समय बहुत दुखी होकर बोली—‘भगवन ! ऐसा ही होगा।' फिर वह यशखिनी नागकन्या दुःखद स्वभाव वाले पति की उसी शर्त के अनुसार सेवा करने लगी। वह श्वेतकाकीय[१] उपायों से सदा पति का प्रिय करने की इच्छा रखकर निरन्तर उनकी आराधना में लगी रहती थी। तदनन्तर किसी समय ऋतुकाल आने पर वासुकि की बहिन स्नान करके न्यायपूर्वक अपने पति महामुनि जरत्कारू की सेवा में उपस्थित हुई। वहाँ उसे गर्भ ठ्हर गया, जो प्रज्वलित अग्नि के समान अत्यन्त तेजस्वी तथा पतःशक्ति से सम्पन्न था। उसकी अंगकान्ति अग्नि के तुल्य थी। जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा बढ़ते हैं, उसी प्रकार वह गर्भ भी नित्य परिपुष्ट होने लगा। तत्पश्चात कुछ दिनों के बाद महातपस्वी जरत्कारू कुछ खिन्न से होकर अपनी पत्नी की गोद में सिर रखकर सो गये। उन विप्रवर जरत्कारू के सोते समय ही सूर्य अस्ताचल को जाने लगे। ब्राम्हन ! दिन समाप्त होने ही वाला था। अतः वासुकि की मनस्विनी बहिन जरत्कारू अपने पति के धर्मलोप से भयभीत हो जगाना मेरे लिये अच्छा (धर्मानुकुल) होगा या नहीं? मेरे धर्मात्मा पति का स्वभाव बड़ा दुःखद है। मैं कैसा बर्ताव करूँ, जिससे उनकी दृष्टि में अपराधिनी न बनूँ। ‘यदि इन्हें जगाऊँगी तो निश्चय ही इन्हें मुझ पर क्रोध होगा और यदि सोते-सोते संध्योपासना का समय बीत गया तो अवश्य इनके धर्म का लोप हो जायेगा, ऐसी दशा में धर्मात्मा पति का कोप स्वीकार करूँ या उनके धर्म का लोप? इन दोनों में धर्म का लोप ही भारी जान पड़ता है।’अतः जिससे उनके धर्म का लोप न हो, वही कार्य करने का उसने निश्चय किया। मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके मीठे वचन बोलने वाली नागकन्या जरत्कारू ने वहाँ सोते हुए अग्नि के समान तेजस्वी एवं तीव्र तपस्वी महर्षि से मधुर वाणी में यों कहा—‘महाभाग ! उठिये, सूर्यदेव अस्ताचल को जा रहे हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्वतेकाक का अर्थ यह हैं—श्वा, एत और काक; जिसका क्रमशः अर्थ है—कुत्ता, हिरण और कौआ (श्वा+एत में पररूप हुआ है) तात्पर्य यह है कि वह कुतिया की भाँति सदा जागती और कम सोती थी, हिरण के समान भय से चकित रहती और कौए की भाँति उनके इंगित (इशारे) समझने के लिये सावधान रहती थी।